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भगवद्-भक्त नित्य है

भगवान, भगवान के पार्षद एवं भगवद-भक्त जो लीला करते हैं, वह साधारण मनुष्य के समान नहीं होती। मनुष्य का जन्म होता है, मृत्यु होती है। हम संसार में जितने भी प्राणियों को देखते हैं, उन सबका जन्म होता है और फिर मृत्यु भी होती है। किन्तु भगवान इस संसार में आते हैं, भगवान प्रकट होते हैं अर्थात् भगवान का आविर्भाव होता है। जब भगवान इस संसार से जाते हैं, तब तिरोभाव होता है। भगवान् संसार के साधारण प्राणियों की तरह नहीं हैं। इसी प्रकार भगवान् के पार्षद, शुद्ध-भक्तों का भी स्वरूप चिन्मय है। इसे प्राकृत इन्द्रियों से नहीं समझा जा सकता है। शुद्ध-भक्त भगवान् की इच्छा से इस जगत में आते हैं और भगवान् की इच्छा होने से ही संसार से चले जाते हैं। उनका आविर्भाव और तिरोभाव होता है।

 

 

किसी व्यक्ति-विशेष के मर जाने पर शोक सभा की जाती है। किन्तु जब वैष्णव तिरोधान करते हैं, तब वहाँ पर शोक सभा नहीं होती, अपितु विरह सभा होती है। विरह का दुःख और मृत्यु का शोक एक नहीं है। भगवान और भक्त के लिए हमारे ह्रदय में जो कष्ट होता है, वह आवश्यक है। यह भजन के लिए अच्छा है। इसी को विप्रलम्ब अथवा विरहात्मक भजन कहते हैं। अपने आचरण से इस जगत को शिक्षा देने के लिए स्वयं नन्दनन्दन श्रीकृष्ण, राधारानी के भाव को लेकर गौरांग रूप से प्रकट हुए और पुरुषोत्तम धाम में बारह साल तक विरहात्मक भजन की लीला प्रकाशित की। अपने अन्तरंग पार्षद — स्वरूप दामोदर और राय रामानंद, जोकि ललिता और विशाखा सखी के अवतार हैं, के साथ विप्रलम्ब भाव में भजन का आस्वादन किया। इसलिये गुरुजी से, भगवान् में और भक्त में जितनी प्रीति होगी उतना ही विरह भाव होगा। इसमें कोई नुकसान नहीं है, किन्तु शोक करना मना है।

 

जातस्य हि ध्रुवो मृत्युध्रुर्वं जन्म मृतस्य च।
तस्मादपरिहार्येऽर्थे न त्वं शोचितुमर्हसि ।।
(भगवद्गीता 2.27)

 

भगवद्गीता में भी श्रीकृष्ण ने अर्जुन को शोक करने के लिए मना किया है। शोक तमोधर्म है। इसलिये वैष्णवजन शोक सभा नहीं करते हैं। अज्ञान होने से ही शोक उत्पन्न होता है। अज्ञानवश जब हम शरीर को ही व्यक्ति मानते हैं, तो शरीर के नष्ट हो जाने पर शोक करते हैं। शास्त्रों में जीवात्मा को ही व्यक्ति कहा गया है। आत्मा ही नित्य एवं चेतन सत्ता है। जब तक शरीर में चेतन सत्ता विराजमान रहती है तब तक ही उसे व्यक्ति माना जाता है। चेतन के चले जाने पर जड़ शरीर को रसायनिक प्रक्रिया से जैसे के तैसे रखा जा सकता है। किन्तु कोई भी इस मृत शरीर को व्यक्ति नहीं मानता है। यहाँ तक कि मृत शरीर को स्पर्श करने से स्नान करना पड़ता है।

 

यह जीवात्मा नित्य चेतन एवं अणु सच्चिदानंद है। सच्चिदानंद आत्मा का अस्तित्व होने से ही कोई व्यक्ति मरने की इच्छा नहीं करता है। मनुष्य में सब कुछ जानने की इच्छा है, और आनन्द प्राप्ति की इच्छा भी है। क्या आनन्द के अभाव को आनन्द-प्राप्ति की इच्छा हो सकती है? ज्ञान के अभाव को क्या ज्ञान प्राप्ति की इच्छा रह सकती है? क्या अनित्य को नित्यकाल रहने की इच्छा हो सकती है? इस प्रकार का विचार बेतुका एवं मूर्खतापूर्ण ही है।

 

हम सब श्रीमद् भगवद्गीता को पढ़ते हैं। ऐसा कहा जाता है कि गीता का सारी दुनिया में प्रभाव है। लेकिन गीता की शिक्षा के अनुसार विश्वास कितने लोग करते हैं? भगवद्गीता में ही अणु सच्चिदानंद को आत्मा कहा गया है।

 

न जायते म्रियते वा कदाचिन्नायं
भूत्वा भविता वा न भूयः।
अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो
न हन्यते हन्यमाने शरीरे ।।
(भगवद्गीता 2.20)

 

आत्मा का न तो जन्म होता है, न ही मृत्यु। बार-बार जन्म होता है, बार-बार मृत्यु हो जाती है, ऐसा नहीं है। शरीर का नाश होने से आत्मा का नाश नहीं होता है। एक बद्ध जीव की आत्मा का भी नाश नहीं होता है। वास्तविक व्यक्ति का नाश नहीं होता है। इस स्थूल शरीर का ही जन्म होता है और अन्त में नाश हो जाता है।
यदि कोई आत्मस्थ हो जाये, आत्म-भूमिका में स्थित हो जाये, तो सारी दुनिया भी यदि मर जाये किन्तु वह उदासीन ही रहेगा। संसार का संचालन तो त्रिगुण से होता है। रजोगुण से उत्पन्न होकर, सतोगुण से संरक्षण होता है और तमोगुण से नाश हो जाता है। और यह होता ही रहेगा। आत्मा का जन्म भी नहीं है, मृत्यु भी नही है। मैं जब आत्मा हूँ तो मुझे डरने की क्या आवश्यकता है।

 

देहिनोऽस्मिन् यथा देहे कौमारं यौवनं जरा।
तथा देहान्तरप्रप्तिर्धीस्तत्र न मुह्यति।।
(भगवद्गीता 2.13)

 

श्रीमद् भगवद्गीता के इस श्लोक में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि आत्मा के देह धारण करने पर देह क्रमशः कौमार्य, यौवन और वृद्धावस्था को प्राप्त करता है। और फिर देहान्तर के पश्चात दूसरा जन्म होता है। लेकिन आत्मा नित्य है। Transmigration of soul अर्थात् आत्मा तो केवल एक शरीर से दूसरे शरीर को प्राप्त करती है। शरीर के नाश हो जाने से ही आत्मा का नाश नहीं होता है। नाश तो केवल स्थूल शरीर और सूक्ष्म शरीर का होता है। मुक्त हो जाने पर जीव के सूक्ष्म शरीर का भी नाश हो जाता है। किन्तु आत्मा अविनाशी है, हमेशा रहता है।

 

एक बार एक भगवद्-भक्त ने मुझसे यह सवाल किया था कि परमपूज्यपाद श्रील पुरी गोस्वामी महाराज जी तो संसार से चले गये हैं। अब तो हम उनसे मिल नहीं पायेंगे, उनसे कुछ उपदेश भी नहीं मिल सकेगा। सब खत्म हो गया। तो मैंने उनसे कहा, आप लोग रोज़ हरिकथा सुनते हैं, और भगवद्गीता पढ़ते है, और भी सब शास्त्रों का अध्ययन करते हैं। शास्त्रों में दृढ़तापूर्वक कहा गया है कि एक बद्ध जीवात्मा का भी नाश नहीं होता है। पूज्यपाद श्रील पुरी गोस्वामी महाराज जी श्रीभगवान के निजजन हैं, श्रील भक्ति सिद्धान्त सरस्वती ठाकुर प्रभुपाद जी के अन्तरंग पार्षद हैं जिन्होंने श्रीकृष्ण से उद्भूत ब्रह्ममाध्व परम्परा का आश्रय लिया। क्या ऐसे वैष्णवजन के अप्रकट होने से ही उनका नाश हो जाएगा? हमारे प्राकृत नेत्रों का की कीमत ही क्या है? झाड़ू के एक तिनके से यदि आँख फोड़ दें तो सारा दृश्य-जगत नष्ट हो जाता है। कान को फोड़ देने से तुरंत ही शब्द-जगत नष्ट हो जाएगा। ऐसी नाश्वान इन्द्रियों पर निर्भर करते हैं हम! ऐसी नाश्वान इन्द्रियों से किया गया अनुभव क्या वास्तविक हो सकता है? इन प्राकृत इन्द्रियों का मूल्य तो कुछ भी नहीं है। इस शरीर के रहते हुए भी इन इन्द्रियों का क्षय हो जाता है। और हम प्राकृत नेत्रों से दृश्य-जगत को ही वास्तविक मानते हैं! What is this?

 

कितने सौभाग्य से हमारा जन्म भारतवर्ष में हुआ है, जोकि ऋषियों-मुनियों का स्थान है। वेद-पुराण, भगवद्गीता, भागवतम, महाभारत जैसे शास्त्रों के रहते हुए भी हमारा ऐसा विचार रखना दुर्भाग्य ही है। लेकिन तथ्य यह है कि भगवद-भक्त नित्य है। मैंने इसका साक्षात् दर्शन किया है। अभी भी जो कुछ हो रहा है वह हमारे गुरुजी की शक्ति से ही हो रहा है। गुरु जी के अप्रकट हो जाने से यदि हम उनके आश्रय को त्याग देंगे तो हमारी कुछ भी कीमत नहीं रहेगी।

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