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नित्यानंद प्रभु की अविर्भाव तिथि पर

मुझे बहुत सालों के बाद लुधियाना में आने का अवसर मिला। वर्ष1972 में हमारे गुरुभ्राता, श्री नरेंद्र कपूर (नरहरि दासाधिकारी), श्री राकेश कपूर के पिता, हमारे गुरुजी को यहाँ पर लेकर आए थे। 1972 से 1978 तक यहाँ पर गुरुजी आते रहे। प्रत्येक वर्ष यहाँ वार्षिक धर्म सम्मेलन होता था और इस स्थान से नगर संकीर्तन निकलता था। अभी भी यहाँ से नगर संकीर्तन निकलता है और न्यू मॉडल टाउन में जाता है। तब हम लगातार गुरुजी के साथ आते थे। जो पुराने लोग हैं, वे जानते हैं।

 

 

आज विशेष शुभ तिथि है। आज बलदेव, दाऊजी के अभिन्न स्वरूप, श्रीमन् नित्यानन्द प्रभु की शुभ आविर्भाव तिथि है। उसी तिथि पूजा के उपलक्ष्य में यहाँ पर आज सम्मेलन हुआ और साथ ही भोग-राग भी होगा। आज उपवास है। कल भण्डारा होगा। विष्णु अवतारों की आविर्भाव तिथि में उपवास होता है। फलाहार होता है। चावल, गेहूँ ये सब नहीं ले सकते हैं। पंच हवि उपवास में वर्जित होते हैं। उन्हें खाने से व्रत नष्ट हो जाएगा। एकादशी में जैसा व्रत होता है, उसी प्रकार यह व्रत किया जाता है। ठाकुर जी को भोग देना होगा। ठाकुर जी का उपवास नहीं है, हम लोगों का उपवास है।

 

मेरे लिए एक मुश्किल है, मेरा शरीर बंगाल का है। यहाँ आने से हिंदी में बोलने का मौका मिलता है, पंजाबी थोड़ी बहुत समझ में आती है किन्तु पंजाबी में बोल नहीं सकता (गुरूजी कुछ शब्द पंजाबी में बोलते हैं और सब हँसते हैं)। कैसे भावों का आदान-प्रदान होगा? टूटी-फूटी हिंदी कहूँगा, थोड़ा ध्यान देकर सुनने से समझ आएगा। कण्ठ की आवाज़ बंगाल की है न!

 

पतित पावन श्रीमन् नित्यानन्द प्रभु का आविर्भाव बंगाल के वीरभूम जिले के अन्तर्गत बोलपुर शान्ति निकेतन के निकट एकचक्र धाम में हुआ। इस स्थान का सम्बन्ध महाभारत के साथ भी है। वे हाड़ाई पण्डित(ओझा) और पद्मावती देवी को अवलम्बन करके एक श्रेष्ठ ब्राह्मण कुल में आविर्भूत हुए। रामलीला में लक्ष्मण, रामजी के छोटे भाई थे, इसलिए लक्ष्मण जी के हृदय में दुःख था कि मैं अपने इष्टदेव रामजी की सेवा(पूर्ण रूप से) नहीं कर पाया। वे बड़े भाई हैं इसलिए जो आज्ञा करते हैं, उसे पालन करना पड़ता है। रामजी मर्यादा पुरुषोत्तम हैं और उनकी लीला नीति की प्रतिक है। लक्ष्मण के हृदय में इस प्रकार आकांक्षा हई कि यदि मैं बड़ा भाई होता तो मुझे राम जी की सेवा करने का अवसर अधिक मिलता। इसलिए कृष्ण लीला में लक्ष्मण, दाऊजी रूप से प्रकट हुए। दाऊजी कृष्ण के बड़े भाई हैं। जो दाऊजी बोलेंगे, कृष्ण को उनकी बात सुननी पड़ेगी। कृष्ण लीला में बलराम हुए और उन्हीं बलराम से अभिन्न हैं—नित्यानन्द प्रभु।

 

हमारे गुरुवर्ग थे-नरोत्तम ठाकुर। हमने उनका दर्शन नहीं किया, गुरु परम्परा में उनको स्मरण करते हैं। नरोत्तम ठाकुर जी ने बंगला में लिखा—

व्रजेन्द्र नन्दन येइ, शचीसुत हैल सेइ, बलराम हइल निताई।
दीनहीन यत छिल, हरिनामे उद्धारिल, तार साक्षी जगाइ-माधाइ॥

 

व्रजेन्द्रनन्दन कौन हैं? व्रज के राजा(इन्द्र), व्रजेन्द्र हैं—नन्द महाराज। नन्द महाराज के पुत्र, नन्दनन्दन कृष्ण को कहते हैं—व्रजेन्द्रनन्दन। वही नन्दनन्दन कृष्ण हैं स्वयं भगवान। भागवत में समस्त भगवद् अवतारों के बारे में बोलने के बाद कहते हैं—

 

एते चांशकलाः पुंसः कृष्णस्तु भगवान् स्वयम्।
इन्द्रारिव्याकुलं लोकं मृडयन्ति युगे युगे॥
(श्रीमद् भागवत 1.3.28)

 

राम, नृसिंह आदि अवतारों के बारे में कहने के बाद वेदव्यास मुनि ने भागवत में लिखा, कोई अंश है, कोई अंशों का अंश है,किन्तु कृष्ण के समान कोई नहीं है। कृष्ण स्वयं भगवान हैं। स्वयं भगवान किसे कहते हैं? जिनकी भगवत्ता से औरों की भी भगवत्ता है। उन्हें स्वयं भगवान कहते हैं। जिनमें समस्त रस हैं, अखिल रसामृत मूर्ति; उन्हें कहते हैं—नन्दनन्दन कृष्ण। द्वादश रस केवल कृष्ण में ही हैं।

 

जब हम श्रीकृष्ण के जन्म स्थान, मथुरा में गए थे, वहाँ रंगेश्वर महादेव का दर्शन किया था। रंगेश्वर महादेव के समीप में ही रंगालय है।

 

कंस को जब पता चला कि नन्द महाराज का पुत्र कृष्ण ही उसका वध करेगा, तो उसने कृष्ण-बलराम का वध करने के लिए एक राजनीति की। ब्रजवासियों की मल्लक्रिया(कुश्ती) करने की बहुत रुचि थी। तो कंस ने रंगालय में मल्ल-युद्ध का आयोजन किया और सभी ब्रजवासियों को निमंत्रित किया। वहाँ कुवलयापीड़ नाम के एक पागल हाथी को भी रखा था। उस हाथी को शिक्षा देकर रखा कि जब कृष्ण-बलराम आएँगे तो पहले ही तुम उन्हें कुचल देना। कंस ने सोचा यदि पागल हाथी उन्हें मार देगा तो मेरे ऊपर उनकी हत्या करने का आरोप भी नहीं लगेगा और कार्य भी सिद्ध हो जाएगा। उसके अतिरिक्त मल्लवीर चाणूर और मुष्टिक भी हैं। यदि कुवलयापीड़ हाथी से कृष्ण-बलराम बच जाए तो चाणूर और मुष्टिक दोनों बालकों को कुश्ती में लड़ते-लड़ते मार देंगे। इससे मेरा भय चला जाएगा। ऐसा सोचकर कंस ने अपने एकमात्र यदुवंशी मित्र अक्रूरजी को, कृष्ण-बलराम, नन्द महाराज और सभी ब्रजवासियों को निमंत्रित करने के लिए भेजा।

 

कृष्ण-बलराम मथुरा पहुँचे। मार्ग में उन्होंने कुब्जा इत्यादि कई व्यक्तियों का उद्धार किया। जब वे रंगालय में पहुँचे, वहाँ ढोल जैसा एक प्रकार का वाद्य बज रहा था। (वैसा वाद्य यंत्र चंडीगढ़ में देखा था जब दारा सिंह कुश्ती लड़ने के लिए आया था)। पहले वह पागल हाथी कृष्ण को मारने के लिए आया। कृष्ण कहते हैं कि हमने कुश्ती करने जाना है। क्यों बाधा देते हो? हमें जाने दो। वह हाथी कृष्ण को मारने के लिए आगे आया। कृष्ण तो छोटा बच्चे हैं किन्तु उसने उस विशाल हाथी के दांत को उखाड़ दिया और उसी दाँत से उसे मार दिया। कृष्ण देखने में तो छोटे हैं किन्तु सर्वशक्तिमान हैं। छोटे होने से भी असीम हैं।

 

गोकुल महावन में जहाँ पर हमारा मठ है, वहाँ पर ब्रह्माण्ड घाट है। ब्रह्माण्ड घाट नाम क्यों हुआ? बच्चे क्या करते हैं? जो देखते हैं, उसे खा लेते हैं। कृष्ण मिट्टी खा रहे हैं। जब कृष्ण मिट्टी खा रहे हैं, तब सब ग्वालबालों ने यशोदा माता जी के पास शिकायत की, “कन्हैया मिट्टी खा रहा है।” मैया कहती हैं-“मिट्टी कोई खाने की चीज़ है? वह मिट्टी क्यों खाएगा? मिट्टी खाने से पेट में कीड़े होंगे। मैं तुम लोगों की बातों पर विश्वास नहीं करती। बलराम कहेगा तो विश्वास करूँगी।” माता ने दाऊजी से पूछा कि क्या कृष्ण ने मिट्टी खाई? दाऊजी कहते हैं कि हाँ, कृष्ण ने मिट्टी खाई है। माता कहती हैं कि अरे! यह भी ऐसे बोलता है। तब माताजी दौड़ कर गईं और जाकर देखा कि कृष्ण के मुख में बहुत सारी मिट्टी एकदम भरी हुई है। माता डांट लगाकर कहती हैं कि मिट्टी क्यों खाता है? पेट में कीड़े होंगे। भगवान के पेट में मिट्टी जाने से कीड़े होंगे। माताजी देखती हैं कि यह तो हमारा बच्चा है। कृष्ण को भगवान नहीं देखतीं। कृष्ण को थप्पड़ मारती हैं। तब कृष्ण ने भयभीत होकर अपने मुँह को खोल देते हैं। मुख के अन्दरसमग्र ब्रह्माण्ड दिखता है। छोटा सा बच्चा और भीतर में ब्रह्माण्ड। मैया कन्हैया के मुख में अपने आप को देखती हैं और पहाड़, पर्वत आदि, सब कुछ देखती हैं।

 

भगवान हैं—अचिंत्य शक्तिमान। रवीन्द्रनाथ टैगोर कहते हैं—सीमार मध्ये असीम तुमि अर्थात् सीमा के अन्दर में भी तुम असीम हो। देखने में सीमित पर उसके अन्दर भी असीम हैं। पर तथा-कथित ज्ञानी लोग यह नहीं समझते। अविचिन्त्य महाशक्ति।

अवतारावली-बीजं हतारि-गति-दायकः।
आत्माराम-गणाकर्षीत्य् अमी कृष्णे किलाद्भुताः॥
(श्री. चै.च. मध्य 23.81)

 

भगवान में अद्भुत शक्तियाँ है। भगवान सर्वशक्तिमान हैं। इसलिए एक ब्रह्माण्ड नहीं, अनन्त ब्रह्माण्ड दिखा सकते हैं। देखने में छोटे बालक हैं।

 

एक बार यशोदा माता ने कृष्ण बाँधने का प्रयास किया। सब आकर शिकायत किया करते थे कि यह चोरी करता है, घर-घर में जाकर माखन चोरी करता है, दही चोरी करता है। अरे! हम लोगों से माँगकर लेने से तो ठीक है पर यह चोरी करता है। पहले तो यशोदा माता ने सुना ही था कि हमारा बच्चा होकर ऐसे चोरी करता है पर एक दिन तो उन्होंने स्वयं ही देखा। तब देखने के बाद सोचा इसको बाँध कर रखूंगी।

 

छोटा सा बच्चा है, पेट का माप ले लिया और माप लेकर जब बांधने गईं तो रस्सी दो उँगली छोटी पड़ गई। तब मैया ने सोचा कि यह कैसे हो सकता है? मैं तो माप लेकर गई थी। तब रस्सी में और रस्सी को जोड़ दिया और रस्सी को लम्बा कर दिया। जब दोबारा बाँधने लगीं, तब रस्सी फिर छोटी पड़ गई। नन्द महाराज के पास बहुत रस्सी है। जोड़ते-जोड़ते उसे इतना लम्बा कर दिया जितना यहाँ से न्यू मॉडल टाउन होगा।

 

तब भी गोपाल का पेट बंधने में नहीं आता। माताजी आश्चर्यचकित हो गईं। उनके शरीर से पसीना निकल गया। केश से फूल गिर गया। बहुत परिश्रम हो गया। तब माता चिंता करने लगीं कि छोटा सा बच्चा है, मैं उसको बांध नहीं सकती? गोपियाँ सब दूर से देख कर हंस रही है। प्रत्येक बार 2 उँगली कम होता है। 3 या 4 उँगली नहीं।

 

अभी माताजी का बहुत कष्ट में देखकर, माताजी के वात्सल्य प्रेम में वशीभूत होकर कृष्ण ने सोचा कि माता जी को और कष्ट नहीं देना चाहिए, बन्धन स्वीकार कर लेना चाहिए। तब जो पहली रस्सी लाई थीं उसी से बन्धन हो गया। अन्य रस्सियों की आवश्यकता ही नहीं पड़ी। दो उंगल की कमी क्यों हुई? एक उंगली भगवान की कृपा है और एक उंगली है—भगवान की कृपा को खींचने के लिए निष्कपट सेवा प्रचेष्टा।

 

“Your sincere effort to serve the object of service.” तभी हम उन्हें प्राप्त कर सकते हैं। भगवान की कृपा को आकर्षण करने के लिए निष्कपट सेवा प्रवृत्ति चाहिए। तब बन्धन हो गया। वे असीम हैं, उन्हें बांध नहीं सकते किन्तु वे उनकी इच्छा से बन्धन स्वीकार करते हैं।

 

वही जो कृष्ण है, ‘व्रजेन्द्र नन्दन जेइ, शची सुत हैल सेइ।’ शची नन्दन गौरहरि कौन है? वही कृष्ण ही हैं।

श्रीमद्भागवत में करभाजन ऋषि ने बताया—

कृष्णवर्णं त्विषाकृष्णं साङ्गोपाङ्गास्त्रपार्षदम् ।
यज्ञैः सङ्कीर्तनप्रायैर्यजन्ति हि सुमेधसः॥
(श्रीमद्भागवत 11/5/32)

 

भगवान कलियुग में इस प्रकार रूप लेंगे; कृष्ण वर्णन करते हुए, कृष्ण का नाम उच्चारण करेंगे, कृष्ण का अन्वेषण करेंगे और कान्ति में अकृष्ण होंगे (कृष्ण की तरह नहीं) अर्थात् पीत वर्ण। सतयुग में शुक्ल वर्ण, त्रेता युग में रक्त वर्ण, द्वापर में कृष्ण वर्ण और कलियुग में पीत वर्ण।

आसन वर्णास्त्रयोह्यस्य गृहृतोऽनुयुगं तनुः।
शुक्लो रक्तस्तथा पीत इदानीं कृष्णतां गतः॥
(श्रीमद्भागवत 10/8/13)

 

गर्ग ऋषि जब श्रीकृष्ण का नामकरण करने के लिए नन्द भवन में आए, तो कहते हैं कि तुम्हारे पुत्र के तीन वर्ण हो चुके हैं।अभी द्वापर युग में कृष्ण वर्ण हुआ। इसके पहले सतयुग में श्वेत वर्ण और त्रेता युग में रक्त वर्ण था। पीत वर्ण होता है कलियुग में। इसका श्रीमद्भागवत में प्रमाण है। बहुत से शास्त्रों में बहुत प्रमाण हैं।

 

‘साङ्गोपाङ्गास्त्रपार्षदम्’— नित्यानन्द और अद्वैत अंग है। नित्यानन्द है बलराम, बलराम है—कृष्ण से अभेद, कृष्ण का ही द्वितीय स्वरूप। कृष्ण ही बलराम रूप से स्वयं भगवान की सेवा करके सेवा की शिक्षा देते हैं। बलदेव गुरु का कार्य करते हैं। तत्त्व में विष्णु है किन्तु गुरु का कार्य करते हैं, तत्त्व में वे गुरु तत्त्व हैं किन्तु गौर लीला में उन्होंने भक्त-भाव अंगीकार किया। इसलिए सफेद रंग, गोरा रंग हो गया। कृष्ण ने भी भक्त भाव ले लिया, राधा रानी का भाव लिया। इसलिए ‘अन्तःकृष्ण, बहिर्गौर’—भीतर में कृष्ण है, बाहर में गौर वर्ण है।

 

“मेरा रूप देखकर राधा रानी को इतना आकर्षण किसलिए होता है? मेरा रूप माधुर्य कैसा है? मेरा माधुर्य आस्वादन में कैसा आनन्द मिलता है और किस प्रकार विकार होता है?”, यह समझने के लिए नन्दनन्दन कृष्ण महाप्रभु रूप से आते हैं।

 

नन्दनन्दन कृष्ण प्रत्येक द्वापर युग में नहीं, विशेष द्वापर युग में आते हैं। ब्रह्मा के एक दिन में चौदह मन्वन्तर होते हैं। कलियुग की आयु 4,32,000 सौर वर्ष है। इसका दो गुना द्वापर, तीन गुना त्रेता और चार गुना सतयुग की आयु है। इस प्रकार एक चतुर्युग में 43,20,000 वर्ष होते हैं। ऐसे 71 चतुर्युग बीतने के बाद एक मनु की आयु समाप्त होती है और ऐसे 14 मनु की आयु समाप्त होने पर ब्रह्मा का एक दिन होता है। इसी प्रकार ब्रह्मा की एक रात होती है।

 

इस समय चौदह मन्वन्तर के अन्तर्गत अभी वैवस्वत मन्वन्तर अर्थात् सप्तम मन्वन्तर चल रहा है। इसी मन्वन्तर में अठाईस चतुर्युग के द्वापर युग में नन्दनन्दन कृष्ण आते हैं, प्रत्येक द्वापर युग में नहीं आते। चैतन्य चरितामृत में कहते हैं-

युग धर्म प्रवर्तन हय अंश हैते।
आमा विना अन्ये नारे व्रज-प्रेम दिते॥

 

भगवान के अंश विष्णु, युग धर्म प्रवर्तन कर सकते हैं किन्तु नन्दनन्दन कृष्ण को छोड़कर ब्रज-प्रेम कोई नहीं दे सकता।

अष्टाविंश चतुर्युग द्वापरेर शेषे।
व्रजेर सहिते हय कृष्णेर प्रकाशे॥
चिर काल नाहि करि प्रेम भक्ति दान।
भक्ति बिना जगतेर नाहि अवस्थान।।
(चै.च.3.14)

चिरकाल अर्थात् ब्रह्मा के एक दिन में कृष्ण प्रेम केवल एक बार देते हैं। इसलिए चिरकाल कहते हैं क्योंकि हम गणना नहीं कर सकते।

‘भक्ति बिना जगतेर नाहि अवस्थान’—प्रेम भक्ति बिना जगत का अवस्थान नहीं है। वैधी भक्ति से भगवान नन्दनन्दन कृष्ण नहीं मिलेंगे।

सकल जगत मोरे करे विधि-भक्ति
विधि-भक्त्ये व्रज-भाव पाइते नाहि शक्ति।।

विधि-भक्ति से लक्ष्मी-नारायण मिलेंगे किन्तु नन्दनन्दन कृष्ण नहीं मिलेंगे। नन्दनन्दन कृष्ण राग भक्ति से मिलते हैं। उसी अनुराग से राधारानी का भाव लेकर गौरांग महाप्रभु का अवतरण हुआ। किसलिए? राधा रानी ने उनका माधुर्य आस्वादन किस प्रकार किया। राधा रानी प्रेम कैसा है, क्या विकार है? उसका आस्वादन करने के लिए।

 

जिस विशेष द्वापरयुग में नन्दनन्दन कृष्ण आए, उसके बाद कलियुग में हम लोग आए हैं। इसलिए हम लोगों का सौभाग्य है। दूसरे कलियुग में नहीं, इसी कलियुग में नन्दनन्दन कृष्ण राधा रानी का भाव लेकर, गौरांग महाप्रभु रूप से प्रकट हुए। सभी को प्रेम देने के लिए ,जो दुर्लभ प्रेम प्राप्त करना बहुत कठिन है।

 

अनर्पितचरीं चिरात् करुणयावतीर्णः कलौ
समर्पयितुमुन्नतोज्ज्वलरसां स्वभक्तिश्रियम्।
हरिः पुरटसुन्दरद्युतिकदम्बसन्दीपितः
सदा हृदय-कन्दरे स्फुरतु वः शचीनन्दनः॥
(चै॰च॰आ॰ 3/4)

 

रूप गोस्वामी ने लिखा है। जो किसी युग में नहीं दिया, वही प्रेम सब को दिया।

 

नमो महावदान्याय कृष्णप्रेम प्रदाय ते।
कृष्णाय कृष्ण चैतन्यनाम्ने गौरत्विषे नमः ॥

 

इसलिए गौरांग को कहते हैं—महावदान्याय। वदान्य स्वरूप कृष्ण के ही अभिन्न स्वरुप हैं— बलराम, जिन्हें अभी हमने प्रणाम किया। बलराम तत्त्व साधारण तत्त्व नहीं है। जो वैकुण्ठस्थ संकर्षण हैं, नारायण का द्वितीय व्यूह—वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्न, अनिरुद्ध; वही संकर्षण बलराम हैं। वही संकर्षण का नाम लेकर प्रणाम मंत्र है, श्री चैतन्य चरितामृत में, “उन्हीं नित्यानन्द को मैं प्रणाम कर रहा हूँ।” उनका अंश हैं—कारणाब्धिशायी विष्णु—प्रथम पुरुषावतार, जो प्रकृति पर दृष्टि देकर अनन्त ब्रह्माण्ड सृष्टि करते हैं।

 

नित्यानन्द ही कारणाब्धिशायी महाविष्णु है। समस्त अनन्त ब्रह्माण्ड में जिन्होंने प्रवेश किया और अपने स्वेद से समुद्र बनाकर गर्भोदकशायी विष्णु को प्रकट किया, जिनकी जंघाओं से रुद्र, नाभी कमल से ब्रह्मा और जिनसे और लीला अवतार, गुण अवतार, सब प्रकाशित हुए। गर्भोदकशायी विष्णु के अंश है क्षीरोदकशायी विष्णु और उनके अंश है शेष – जो पृथ्वी को धारण करते हैं। ये सब पंचदेह धारण करते हुए बलराम कृष्ण की सेवा करते हैं। इसी प्रकार नित्यानन्द भी सेवा करते हैं। नित्यानन्द का उस प्रकार प्रणाम मंत्र है। मूल संकर्षण है द्वारिका में, क्षत्रिय वेश, उनका कारण हैं, व्रज में गोप वेश—बलराम। वही बलराम नित्यानन्द हुए। नित्यानन्द 12 साल पहले बड़े भाई के रूप में एक चक्र धाम में प्रकट हुए। जब कृष्ण(महाप्रभु) का जन्म हुआ तो वहाँ एकचक्र धाम में नित्यानन्द प्रभु हुंकार करने लगे और सबको जनाने लगे कि मेरे भाई कृष्ण ने जन्म लिया है। किन्तु लीला के लिए वे तीर्थ भ्रमण में गए। उन्होंने सोचा कि तीर्थ भ्रमण करते-करते व्रज में जाऊँगा और अपने छोटे भाई को देखूंगा। व्रज में जाकर, सम्पूर्ण व्रज में घूमें पर किसी भी स्थान पर कृष्ण नहीं मिले। उन्हें बहुत विरह हुआ कि हमारा छोटा भाई कहाँ गया? जब सबसे पूछा तो पता चला कि छोटे भाई ने यह व्रजधाम छोड़ दिया। वह नवद्वीप धाम में है। तब वहाँ से वे अत्यंत व्याकुल होकर, (गौड़देश में) वापस आए। आकर वहाँ पर नवदीप धाम में स्वयं मिलने के लिए नहीं गए, वे परिक्षा करना चाहते थे कि महाप्रभु का उनमें प्रीति है या नहीं? उन्होंने स्वयं को नन्दनाचार्य भवन में छुपाकर रखा। नन्दन आचार्य का बहुत बड़ा सौभाग्य हो गया। साक्षात बलराम उनके पास आ गए। नित्यानन्द स्वरूप से वे उनकी सेवा कर रहे हैं।

 

आजानुलम्बित-भुजौ कनकावदातौ, सङ्कीर्तनैक-पितरौ कमलायताक्षौ।
विश्वम्भरौ द्विजवरौ युगधर्मपालौ, वन्दे जगत्प्रियकरौ करुणावतारौ॥

 

महाप्रभु कमल लोचन हैं, साधारण व्यक्ति नहीं हैं। महापुरुष जैसे लक्षण हैं। वृन्दावन दास ठाकुर जी ने लिखा —’आजानुलम्बित भुजौ’, जानु तक लंबी भुजाएँ , ‘कनकावदातौ…..’, बाहर का वर्ण है सोने के रंग जैसा, बाहर से आश्रय विग्रह (राधारानी की कान्ति)है।

 

जैसे गौरांग है, ऐसे ही नित्यानन्द हैं।

 

‘संकीर्तनैकपितरौ’— उन्होंने संकीर्तन धर्म का प्रवर्तन किया।

 

अभी समय तो हो गया किन्तु ऐसी जगह(हिन्दी भाषी क्षेत्र) में आए हैं, थोड़ी भूमिका न बनाने से यहाँ के लोग समझेंगे नहीं। फाउंडेशन करते-करते(आधार बनाते-बनाते) सब समय चला गया। मुख्य बात तो हुई ही नहीं।

‘कमलायताक्षौ’- कमल लोचन हैं।

 

‘विश्वम्भरौ द्विजवरौ’ – जो प्रेम देकर सबको पागल करते हैं गौर-नित्यानन्द। ‘द्विजवरौ’—ब्राह्मण कुल में आए। माधुर्य रस में हैं गोप और यहाँ औदार्य रस में हैं ब्राह्मण।

 

‘द्विजवरौ युगधर्म पालौ’, युगधर्म प्रवर्तक हैं। वे युगधर्म की रक्षा करने वाले, पालन करने वाले हैं। कलियुग में दान इत्यादि करना (युगधर्म नहीं है), वास्तव में हरिनाम संकीर्तन युगधर्म है। ‘वन्दे जगत प्रियकरौ’, जगत का मंगल करने वाले।

 

गौरांग महाप्रभु और नित्यानन्द प्रभु ने चन्द्र-सूर्य रूप से सबपर कृपा की। सूर्य हैं—गौरांग महाप्रभु, और चन्द्र हैं—नित्यानन्द प्रभु। कृष्ण है सूर्य और बलराम है चन्द्र। ‘करुणावतारौ’, सबको ही प्रेम प्रदान किया।

 

वह कीर्तन आप लोगों ने नहीं किया—

निताइ-पद-कमल, कोटि चन्द्र सुशीतल,
ये छायाय जगत जुड़ाय।

 

निताई के पादपद्म है, कोटि चन्द्र सुशीतल —कोटि चन्द्रों के समान शीतल हैं। सबके दुःख को हटाकर परमानन्द दे सकते हैं। ‘ये छायाय जगत जुड़ाय’- जगत के जितने ताप हैं, हटा सकते हैं।

 

हेन निताइ बिने भाई, आधा कृष्ण पाईते नाइ,
दृढ़ करि धर निताइर पाय॥

 

राधाकृष्ण, नित्यानन्द जी की कृपा के बिना मिलेंगे नहीं। जब हम ब्रजमण्डल में राधाकृष्ण के दर्शन करने के लिए जाएँगे, (तो नित्यानन्द जी की कृपा से ही उनके दर्शन प्राप्त होंगे)। वह भक्ति कहाँ पर है? वह भक्ति नित्यानन्द प्रभु ही देंगे। नित्यानन्द जी की कृपा के बिना राधाकृष्ण का दर्शन अनुभव नहीं होगा। दाऊजी की कृपा के बिना कृष्ण की सेवा नहीं मिलेगी।

 

‘नायं आत्मा बलेन लभ्योः’श्रुति में लिखा, यहाँ बल का अर्थ शारीरिक बल नहीं बलदेव प्रभु है। बलदेव की कृपा बिना कृष्ण नहीं मिलेंगे, नित्यानन्द प्रभु की कृपा बिना, गौरांग महाप्रभु, कृष्ण नहीं मिलेंगे।

 

हेन निताइ बिने भाई, राधा कृष्ण पाईते नाइ,
दृढ़ करि धर निताइर पाय॥

 

नित्यानन्द प्रभु के चरण कमलों को बलपूर्वक धारण करना चाहिए।

से सम्बन्ध नाहि यार, वृथा जन्म गेल तार,
सेइ पशु बड़ दुराचार।

 

यदि नित्यानन्द प्रभु के साथ सम्बन्ध नहीं हुआ, तो इस जन्म का क्या लाभ है? वह व्यक्ति तो पशु के समान है, दुराचारी है, दुर्भाग्यशाली है।

निताइ न बलिल मुखे, मजिल संसार सुखे,
विद्याकुले कि करिबे तार॥

 

जब हमें पूर्णानन्द मिल जाएगा, दुःख अपने आप चला जाएगा। हम लोग ऐसा समझते हैं कि दुनिया में धन इत्यादि मिल जाए तो सुख होगा, सुन्दर स्त्री मिल जाए तो सुख होगा, पुत्र मिल जाए तो सुख होगा, स्वर्ग में जाए तो सुख होगा। दुनिया में जितनी भी सुख की वस्तुएँ मिलती हैं, हम सोचते हैं कि उनसे सुख होगा किन्तु वह सुख नहीं है, सुख की माया है।

 

जैसे रेगिस्तान में मृगतृष्णा देखते हैं। वहाँ पर रेत कण पर प्रकाश की किरण पड़ने से दूर से जल जैसा प्रतीत होता है optical illusion। हम जैसे जैसे मृगतृष्णा की ओर जाते हैं वह और आगे चली जाती है। वहाँ जल नहीं है, जल का आभास है। जल से प्यास बुझेगी किन्तु मृगतृष्णा के पीछे-पीछे दौड़ने से प्यास नहीं बुझेगी। जल को पान करना पड़ेगा। जल कहाँ है? Right about turn. भगवान की ओर मुख करो(उन्मुख हो जाओ)। जब हम भगवान से विमुख हो गए तो सामने माया आ गई। ‘मा’-‘या’, ‘not that'(नहीं है जो)। भगवान हैं पूर्ण सच्चिदानन्द।

 

‘ईश्वरः….कारणं।।’
पूर्ण सत्, पूर्ण चित्, पूर्ण आनन्द।

 

जब भगवान के विमुख हो जाते हैं तो असत् आ जाता है। देखने में सत् की तरह किन्तु सत्य नहीं असत्। जगत अचित् है, चित् नहीं है। देखने में ज्ञान की तरह, किन्तु अज्ञान है। देखने में आनन्द की भांति किन्तु उसके पीछे-पीछे चलने से क्या होगा? आनंद का अभाव ही मिलेगा। यदि आनन्द प्राप्ति की इच्छा है, (तो आनन्द के पीछे जाना होगा)। आनन्द कौन है?

‘रसो वै सः…॥’

“Ras personified is Krishna.”

 

पाश्चात्य देश में कहते हैं, “Absolute is for Itself and by Itself.” भगवान अपने लिए रहते हैं। समस्त वस्तुएँ उनके लिए रहती हैं। ‘सर्व कारण कारणं’। वे ‘It God’ कहते हैं, किन्तु हम भगवान को चेतन वस्तु मानते हैं, भगवान कोई जड़ पदार्थ नहीं हैं। इसलिए हम कहते हैं, “Supreme Lord is for Himself and by Himself.”

 

वे सर्वशक्तिमान हैं। आनन्द सर्वशक्तिमान होता है। आनन्द सर्वज्ञ है। आनन्द की कृपा बिना आनन्द नहीं मिलता। जब हम ऐसे सोचते हैं कि हम अपनी चेष्टा से आनन्द को प्राप्त कर लेंगे, यह हमारी सबसे बड़ी भूल है। अपनी चेष्टा से आनन्द को प्राप्त करना चाहेंगे तो अपने से निकृष्ट वस्तु, माया का संग होगा। आनन्द सर्वशक्तिमान है।

 

There is no one equal to him. आनन्द can take initiative. Anand is not cypher. आनन्द व्यक्ति है। आनन्द की कृपा से आनन्द मिलेगा। हम लोग अपनी चेष्टा से करें तो, it will be Himalayan blunder. What think Anand is subservient to us? Can we get Anand by our own capacity? If we think so, we commit Himalayan blunder.

 

आनन्द किसी के अधीन नहीं है। आत्मा अणु चेतन है, (अणु) आनन्द है। जब तक शरीर में अणु चेतन वस्तु रहती है तब तक उसे प्यार करते हैं। जब शरीर से आत्मा चली जाती है तो उस जड़ पदार्थ को, उस मुर्दे को कोई प्यार नहीं करता। एक तोते को भी हम प्यार करते हैं, जब तक वह बात करता है। जब वह मर जाता है तो उसे फेंक देते हैं। आत्मा अणु सच्चिदानन्द है। यद्यपि आत्मा स्थूल शरीर, सूक्ष्म शरीर से आवृत है तब भी आनन्द देती है। उसके चले जाने से शरीर किसी को भी सुख नहीं देता। समस्त जीव अणु चेतन हैं। अणु चेतन अणु व्यक्ति है और विभु चेतन विभु व्यक्ति है। उनकी तरफ उन्मुख हो जाओ और कृष्ण प्रेम प्राप्त करो। उसी कृष्ण प्रेम को देने के लिए चैतन्य महाप्रभु और नित्यानन्द प्रभु अवतरित हुए। चाहे वह कोई भी जाति, वर्ण, योग्यता या आयु का हो अथवा महापापी भी क्यों न हो, उन्होंने सभी को वह प्रेम बाँटा।

 

चैतन्य भागवत में जगाई और माधाई के बारे में वर्णन है। वे जगदानन्द बंदोपाध्याय और माधवानन्द बंदोपाध्याय नाम के दो ब्राह्मण थे किन्तु महापापी थे। एक दिन अचानक श्रीमन्महाप्रभु ने नित्यानन्द प्रभु और हरिदास जी के प्रति यह आज्ञा की—

 

शुन-शुन नित्यानन्द शुन हरिदास ।
सर्वत्र आमार आज्ञा करह प्रकाश ।।

 

हरिदास ठाकुर ब्रह्माजी हैं। जब वे श्रीकृष्ण की परीक्षा करने गए और अपनी भूल का अनुभव हुआ था तो उन्होंने भगवान से यह वर माँगा कि जब आप कलियुग में गौरांग महाप्रभु रूप से आएँगे तो मेरा ऐसा जन्म हो जिससे कि मुझे (ब्रह्मा होने का) घमण्ड न हो।

 

इसलिए हरिदास ठाकुर मुसलमान कुल में आए, किन्तु वे प्रतिदिन 3 लाख हरिनाम करते थे।

 

महाप्रभु कहते हैं, “नित्यानन्द और हरिदास! मेरी आज्ञा को सर्वत्र प्रचार करो।”

 

प्रति घरे घरे गिया कर एइ भिक्षा।
बल कृष्ण भज कृष्ण कर कृष्ण शिक्षा॥

 

“प्रत्येक घर-घर में जाकर यह भिक्षा मांगो- कि कृष्ण बोलो, कृष्ण का भजन करो और कृष्ण-सम्बन्धी शिक्षा ग्रहण करो। सर्वदा कृष्ण नाम करोगे, कृष्ण नाम कराओगे और दिवावसान(दिन बीत जाने पर) होने पर आकर बताओगे कि क्या प्रचार किया।”

 

नित्यानन्द प्रभु का ने यह आदेश पालन किया। एक दिन नित्यानन्द प्रभु हरिदास ठाकुर को लेकर जगाई-माधाई के पास चले गए। उनके सामने जो भी जाता वे उसे मारते थे। लोग उन्हें कहते हैं कि उन दोनों के पास मत जाओ किन्तु वे फिर भी गए और कहने लगे

 

प्रभुर आदेशे मोर मागि एइ भिक्षा।
बल कृष्ण भज कृष्ण कर कृष्ण शिक्षा॥

 

वे दोनों तो क्रोधीत हो गए और कहने लगे कि ये कहाँ से आ गए हैं? कृष्णनाम करने के लिए बोल रहे हैं। इन्हें हम मार देंगे। वे उन्हें मारने के लिए दौड़े। तब नित्यानन्द प्रभु दौड़ने लगे। नित्यानन्द प्रभु की आयु कम है। किन्तु हरिदास ठाकुर की आयु अधिक है। इसलिए अधिक आयु में उनका दौड़ना मुश्किल है, तब भी जैसे-तैसे, प्राण बचाने के लिए दौड़े और किसी प्रकार अपने प्राण बचाकर भाग गए। तब हरिदास ठाकुर महाप्रभु के पास आकर शिकायत करने लगे कि नित्यानन्द पागल है, एक मत्त हाथी की तरह सड़क के डाकुओं को प्रेम देने के लिए गया। अभी तो किसी प्रकार प्राण बचाकर भागे। मैं और इनके साथ नहीं जाऊँगा। तब नित्यानन्द प्रभु कहते हैं कि मैं सबका उद्धार करने आया हूँ। यदि पापी से पापी का उद्धार न करूँ तो मेरे आने का लाभ क्या है। तो बाद में नित्यानन्द प्रभु अकेले ही उनके पास चले गए और उन्हें कहने लगे–

 

प्रभुर आदेशे मोर मागि एइ भिक्षा।
बल कृष्ण भज कृष्ण कर कृष्ण शिक्षा॥

 

तब माधाई मिट्टी का बहुत बड़ा बर्तन उठाकर मारने के लिए दौड़ा। जगाई मना करता है किन्तु वह माना नहीं और उसने नित्यानन्द प्रभु को मारा। उनके सिर से रक्त बहने लगा।रक्त बहने पर भी वे कृष्ण नाम कर रहे हैं। तब महाप्रभु के पास खबर पहुँच गई। महाप्रभु ने ऐसा संकल्प लिया था कि इस लीला में वे किसी का वध नहीं करेंगे, उनकी आसुरिक प्रवृत्ति का नाश करेंगे। किन्तु जब महाप्रभु ने नित्यानन्द प्रभु को इस अवस्था में देखा तो उनसे सहन नहीं हुआ और “चक्र! चक्र!”, कहकर सुदर्शन चक्र का आवाहन करने लगे। चक्र आ गया। नित्यानन्द प्रभु आकर महाप्रभु के चरणों में गिर गए और कहने लगे कि मैं आपसे प्रार्थना करता हूँ कि इनका अपराध क्षमा कर दीजिये।

 

जगाई-माधाई महापापी थे किन्तु कभी विष्णु-वैष्णव की निन्दा नहीं की, कोई अपराध नहीं किया। अपराध रहने से नित्यानन्द प्रभु रामचन्द्र खान पर गुस्सा हो गए क्योंकि उसने हरिदास ठाकुर के चरणों में अपराध किया था।

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