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दिव्या हरिकथा वसंत पंचमी

आज विशेष तिथि है। वसन्त ऋतु में आने वाली माघ महीने की पंचमी तिथि को वसन्त पंचमी कहते हैं। इस तिथि में सरस्वती पूजा होती है और इसी तिथि को अवलंबन करके गौरांग महाप्रभु की शक्ति, गौर-नारायण की शक्ति विष्णुप्रिया देवी का आविर्भाव हुआ। साथ ही आज महाप्रभु के अन्य अन्तरंग पार्षदों की भी तिथि है। आज श्री पुण्डरीक विद्यानिधि प्रभु, श्री रघुनाथ दास गोस्वामी एवं श्री रघुनन्दन ठाकुर की भी आविर्भाव तिथि है और विश्वनाथ चक्रवर्तीपाद की तिरोभाव तिथि है। तथा हमारे गुरुजी के ज्येष्ठ गुरुभ्राता, श्रील भक्ति स्वरूप पर्वत गोस्वामी महाराज जी एवं श्रील भक्ति विवेक भारती महाराज जी की भी तिरोभाव तिथि है। आज की तिथि में तेज़पुर गौड़ीय मठ में वार्षिक महोत्सव होता है। इस समय मैं यहाँ नहीं रहता, असाम में रहता हूँ, पर अब चिकित्सकों ने अधिक परिश्रम करने से मना किया है। उनका कहना सुनना पड़ता है। जो कृष्ण की इच्छा है।

 

 

गौरांग महाप्रभु गृहस्थ लीला में गौरकृष्ण भी हैं और गौर-नारायण भी हैं। प्रत्येक विष्णुतत्त्व की 3 शक्तियाँ हैं—श्री,भू एवं लीला शक्ति। चैतन्य महाप्रभु की श्री शक्ति-लक्ष्मीप्रिया,भू शक्ति-विष्णुप्रिया देवी और लीला शक्ति-धाम हैं। इसी प्रकार बलदेव प्रभु की भी दो शक्तियाँ हैं—रेवती और वारुणी। नित्यानन्द प्रभु की शक्ति वसुधा और जाह्नवा हैं।

 

आज विष्णुप्रिया देवी की आविर्भाव तिथि है। विष्णुप्रिया देवी चिन्मयी शक्ति हैं, अप्राकृत हैं। भगवान भी अप्राकृत हैं, उनकी चिन्मयी शक्ति भी अप्राकृत है। इसलिए जितने भी महाप्रभु के पार्षद हैं, जो ऊपर नाम बताए, रघुनाथ दास, श्री विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर इत्यादि, वे सब साक्षात् महाप्रभु के पार्षद हैं, साथ ही सभी कृष्ण लीला के स्वरूप हैं और सब चिन्मय हैं। गौर-नारायण की शक्ति लक्ष्मीप्रिया देवी हैं। जब कोई इनके भगवान और उनकी शक्ति के विवाह को देखे तो उस विवाह को दर्शन करने से संसार मुक्ति हो जाती है। भगवान और उनकी शक्ति का विवाह इस संसार के साधारण विवाह जैसा नहीं है, यह अप्राकृत है, प्राकृत जगत का नहीं है। हम लोगों में पुरुष अभिमान है। यदि स्त्री के अन्दर भोग प्रवृत्ति रहती है, तो वह भी पुरुषाभिमान है। पुरुष एकमात्र भगवान हैं। वे ही भोक्ता हैं, और कोई भोक्ता नहीं, वे ही भोग करेंगे।

 

विष्णोस्तु त्रीणि रूपाणि पुरुषाख्यान्यथो विदुः।
एकन्तुमहतः स्त्रष्ट्र द्वितीयं त्वण्डसंस्थितम्।
तृतीयं सर्वभूतस्थं तानि ज्ञात्वा विमुच्यते ॥
(लघु भागवतामृत 1.5, श्री. चै.च आदि 5.77)

 

यह लघु भागवतामृत में श्री रूप गोस्वामी ने लिखा है। प्रथम पुरुषावतार हैं कारणोदकशायी महाविष्णु, जो कारणार्णव में शयन करते हैं। वे कहते हैं—’एकः अहं बहु स्याम्’, जो अनन्त ब्रह्माण्ड की सृष्टि करते हैं और महत् तत्त्व के अन्तर्यामी हैं। अनन्त ब्रह्माण्ड के अन्तर्यामी और उनका साक्षात् रूप से नियंत्रण करने वाले हैं—गर्भोदकशायी महाविष्णु। व्यष्टि जीव के अन्तर्यामी, एक-एक जीव के अन्दर, एक-एक ब्रह्माण्ड के अन्दर क्षीरोदकशायी अन्तर्यामी रूप से विराजमान हैं। तीन पुरुषावतार भोक्ता हैं, जब यह दर्शन होगा, तब उस व्यक्ति की संसार में आसक्ति नहीं होगा। हम लोग जितने हैं, सब भोग्य हैं। जब भगवान को भूलकर हम स्वयं को भोक्ता समझकर संसार का भोग करने जाएँगे, तो संसार में फँस जाएँगे। चाहे जो भी शरीर हमको प्राप्त हुआ, पुरुष हो या स्त्री हो , हम लोग भोक्ता नहीं हैं। भोक्ता केवल मात्र भगवान ही हैं। यह बात समझना हम लोगों के लिए बहुत कठिन है।

 

जो लोग वास्तविक विद्या लाभ करना चाहते हैं वे विष्णुप्रिया देवी की उपासना करेंगे। विद्या दो प्रकार की है—परा और अपरा। परा विद्या को ब्रह्म विद्या, भगवद्-विद्या कहते हैं। निर्गुण भगवान को जानने के लिए जो विद्या है उसे परा विद्या कहते हैं।

 

‘जड़ विद्या यत मायार वैभव, तोमार भजने बाधा।
मोह जन्माइया अनित्य संसारे जीव के करये गाधा।।

 

जड़ विद्या (material knowledge) माया का वैभव है। यह भगवान के भजन में बाधा है। जड़ विद्या जीव को गधा बना देती है, संसार के बोझ को वहन करने के लिए। विष्णु प्रिया देवी परा विद्या स्वरूपिणी हैं। विष्णु प्रिया देवी कौन हैं? कृष्ण लीला में सत्राजित राजा थे, वे यदुवंश में प्रकट हुए निम्न राजा के पुत्र हैं। सत्राजित राजा की कन्या है—सत्यभामा। सत्यभामा द्वारिकाधीश कृष्ण की महिषी हैं। श्रीमद्भागवत में संक्षेप में वर्णन आता है। सत्राजित राजा ने सूर्यदेव की उपासना की और सूर्यदेव के साथ उनकी मित्रता हो गई और सूर्यदेव ने उन्हें स्यमंतक मणि दी। स्यमंतक मणि का तेज़ बहुत अधिक होता है। वह मणि जहाँ पर रहे, वहाँ अमंगल नहीं रह सकता और वह प्रतिदिन अष्ट भार सोना देती है। यदि ऐसी कोई मणि मिले तो संसार में कौन-सा व्यक्ति है जो उसे नहीं लेगा और मणि छोड़ने की इच्छा करेगा?

 

एक दिन सत्राजित राजा मणि को शरीर में धारण करके द्वारिका में आए। सत्राजित राजा से इतनी रोशनी आ रही थी कि द्वारिकावासियों को लगा जैसे सूर्य आ रहा है। अरे! सूर्य कैसे आ गया, वे दौड़कर कृष्ण को बोलने गए। उन्होंने कृष्ण को कहा कि सूर्य हमारे यहाँ पर आ गया है। कृष्ण बोले-सूर्य? तब द्वारिकावासी कहते-हाँ, सूर्य आ गया है। तब कृष्ण ने बताया कि वह सत्राजित राजा है, जो सूर्य द्वारा दी गई स्यमन्तक मणि धारण करके आ रहा है। तुम लोगों को लग रहा है कि सूर्य आ गया है, किन्तु सूर्य नहीं आ रहा, उनकी मणि का प्रकाश आ रहा है। तब कृष्ण ने उन्हें देखा और देखने के बाद कहा, यह स्यमन्तक मणि तुम मुझे दे दो। सत्राजित राजा वह मणि कृष्ण के कहने पर भी उन्हें दे नहीं सके। भक्त है किन्तु फिर भी उनकी स्यमन्तक मणि देने की इच्छा नहीं हुई। वह मणि लेकर अपने राज्य में वापिस चले गए। तब सत्राजित राजा के छोटे भाई, प्रसेन ने कहा कि मैं शिकार के लिए जा रहा हूँ। मुझे यह मणि चाहिए क्योंकि यह साथ में रहने से सब मंगल होगा। इसलिए मैं इसे साथ लेकर जाऊँगा। तो उन्होंने प्रसेन को वह मणि दे दी। जंगल में एक शेर के साथ उसकी भेंट हो गई। शेर में तो बहुत ताकत है। शेर के साथ लड़ाई हो गई और शेर ने प्रसेन को मारकर वह स्यमन्तक मणि उससे ले ली। जब बाद में जब प्रसेन नहीं आया, तो जिस प्रकार ‘काम्या: पश्यन्ति… time 23.28 ’,आदमी ऐसा स्वभाव होता है कि वह अपनी दृष्टी के अनुसार दूसरों को देखता हैं। एक काममय व्यक्ति, सभी स्त्रियॉं को भोग की दृष्टी से देखता है। धनी व्यक्ति धन का ही व्यापार करते हैं, धीर व्यक्ति सब जगह भगवान के दर्शन करते हैं। सभी अपने-अपने भाव से देखते हैं। राजा सत्राजित ने सोचा कि मैंने कृष्ण को यह मणि नहीं दी। इसलिए कृष्ण प्रसेन का वध करके मणि ले गया है। यह बात जब कृष्ण ने सुनी तो उन्होंने अपने सभी द्वारिका वासियों को, जहाँ प्रसेन को मारा गया, वहाँ पर चलने को कहा। जाकर मार्ग में देखा कि प्रसेन मृत है, थोड़ा और आगे जाकर देखा तो शेर भी मृत पड़ा है। उन्होंने ने सामने एक गुफा देखी। भगवान तो अन्तर्यामी हैं। इसलिए उन्होंने अपने वासियों को कहा कि आपलोग यहीं प्रतीक्षा कीजिए, मैं गुफा में जाकर देखता हूँ। जाम्बवान ने उस शेर को मारकर वह मणि अपने पुत्र को दे दी थी। जब कृष्ण ने अन्दर जाकर देखा तो जाम्बवान का पुत्र उस मणि से खेल रहा था। जब कृष्ण ने उस मणि को लेना चाहा तो जाम्बवान उनसे युद्ध करने लगे। 28 दिन तक युद्ध चला। 28 दिन लगातार युद्ध करने से उनका शरीर दुर्बल हो गया। तब उन्होंने समझा यह अवश्य ही मेरे इष्टदेव हैं, नहीं तो उनमें इतनी ताकत नहीं हो सकती। तब जाम्बवान उनके चरणों में गिरे और सोचा कि मेरा अपराध हुआ है। उन्होंने कृष्ण से क्षमा माँगी तथा अपनी कन्या जामवंती और मणि दोनों कृष्ण को अर्पित कर दी। वे(जाम्बवान) भक्त हैं, इसलिए उन्होंने स्यमन्तक मणि नहीं रखी, यह सोचकर कि यह मणि भगवान का ही द्रव्य है। धन के, लक्ष्मी के स्वामी कौन हैं—नारायण। यदि हम भोग करने के लिए जाएँगे, तो कठिनाई होगी ही होगी। Bata shoe कंपनी के मालिक थॉमस बाटा, हेनरी फोर्ड के बाद दुनिया के दूसरे सबसे धनि व्यक्ति थे। उनके व्यापार में बहुत बड़ी तस्करी हुई, बहुत हानि हुई। उनके मन में इतनी अशान्ति हुई कि उन्होंने फ़्रांस में, पेरिस में आत्महत्या कर ली। उनके पास इतना धन था, पर फिर भी उससे उनको सुख नहीं मिला।

 

इसी प्रकार अभी देखिए यहाँ पर प्रसंग आ गया, जब कृष्ण गुफा से लम्बे समय तक नहीं आए तो द्वारिकावासियों ने समझा कि कृष्ण का वध हो गया। तो वे दुःखी होकर विलाप करने लगे। बाद में देखा कि भगवान कृष्ण मणि और जामवंती के साथ गुफा से बाहर निकले। सबको बहुत आनंद हुआ और सब ने उनकी आराधना की। उसके एक-दो दिन बाद कृष्ण ने सत्राजित राजा को बुलवाया, उनके समक्ष सम्पूर्ण घटना का वर्णन किया और वह मणि उनको लौटा दी। सत्राजित राजा को बहुत लज्जा हुई उन्होंने सोचा कि मेरा बहुत बड़ा अपराध हुआ। तब उन्होंने अपनी कन्या सत्यभामा और मणि को लेकर कृष्ण के पास जाकर समर्पित कर दिया। कृष्ण ने सत्यभामा को ग्रहण कर लिया, वे बहुत भक्तिमति एवं गुणी है, वास्तव में वे तो उनकी नित्य पार्षद हैं। किन्तु स्यमन्तक मणि को वापिस कर दिया। भगवान जानते हैं कि मणि सत्राजित मणि दे तो रहे हैं किन्तु हृदय में मणि के प्रति आसक्ति है। ऐसा कहा गया कि स्यमन्तक मणि जहाँ रहेगी वहाँ मंगल रहेगा किन्तु क्या हुआ? इस मणि के कारण पहले प्रसेन की मृत्यु हो गई, वह शेर की भी मृत्यु हुई और बाद में जाम्बवान का कृष्ण से 28 दिनों तक युद्ध हुआ। इसलिए कृष्ण ने मणि को सत्राजित को वापिस कर दिया।

 

जब श्रीक़ृष्ण और बलराम हस्तिनापुर गए थे तब अक्रूर और कृतवर्मा ने शतधन्वा को उकसाया और कहा कि यही ठीक अवसर है। तुम सत्राजित से मणि छीनकर ले आओ। शतधन्वा ने सत्राजित जब निद्रा में थे तब उनका वध कर दिया और स्यमन्तक मणि को चुरा लिया। जब वह मणि लेकर आया तब अक्रूर ने कहा कि मैंने तो केवल मणि लाने के लिए कहा था, तुमने सत्राजित का वध क्यों कर दिया? तब शतधन्वा उस मणि को अक्रूर के पास छोड़कर द्वारिका से भाग गया। पिता की मृत्यु का समाचार सुनकर सत्यभामा रोने लगीं और हस्तिनापुर जाकर उन्होंने कृष्ण-बलराम को सब वृतांत सुनाया। मणि को शतधन्वा द्वारा चुराए जाने का पता चलने पर कृष्ण और बलराम ने उसका वध कर दिया।। शतधन्वा के पास मणि नहीं मिलने पर कृष्ण को लगा कि उसने मणि अक्रूर के पास ही रखी होगी। जिसके पास मणि जाती है उसकी मृत्यु हो जाती है और उसे ही कष्ट होता है। ऐसा वहाँ लिखा है कि यह जहाँ रहती है वहाँ अष्ट भार सोना होता है, मंगल होता है। क्या मंगल हुआ?

 

“संगे केने आनियाछ एइ काल-यम?” सनातन गोस्वामी ने ईशान को कहा, “इस काल यम को साथ में क्यों लाये हो?” सनातन गोस्वामी प्रधानमंत्री थे। जब वे अपना पद और समस्त सांसारिक भोग त्यागकर वृन्दावन की ओर प्रस्थान कर रहे थे तब उनके साथ एक सेवक थे—ईशान। वे लोग वृन्दावन जाते समय एक व्यक्ति के घर में ठहरे थे जो कि वास्तव में एक डाकू भी था। उसने जान लिया कि इनके पास आठ सोने के मोहर हैं और सोचा कि दोनों को मारकर उनके मोहर ले लेंगे। जब सनातन गोस्वामी ने देखा कि यह तो बहुत आदर कर रहे हैं तो उन्होंने सोचा कि इतना आदर क्यों करता हैं? तब सेवक को बुलाया और पूछा कि तुम्हारे पास कुछ है?

 

उसने कहा—हाँ है।

उन्होंने पूछा—कितने हैं?

उसने उत्तर दिया—सात सोने के मोहर हैं, एक मोहर के बारे में नहीं बताया।

तब सनातन गोस्वामी ने कहा कि काल यम को साथ में क्यों लाए हो? तब सेवक को डाँटकर वे 7 मोहर उन्होंने डाकुओं के सरदार को दे दिए।

 

तब उन लोगों ने बताया कि हम पहले ही जानते थे कि आपके पास 8 सोने के सिक्के हैं। हमने सोचा था कि आपके सेवक से मोहर लेकर आप दोनों को मार देंगे। आपने हमें पाप करने से बचा लिया। यह कहकर उसने मोहर सनातन गोस्वामी को वापिस कर दिए। उसने कहा कि आपको सोने कि मोहर देने के आवश्यकता नहीं है, हम आपको ऐसे ही मार्ग दिखा देंगे। सनातन गोस्वामी जानते थे, ‘‘अव्यवस्थित चित्तानाम् प्रसादोऽपि भयंकरः”— दुष्ट व्यक्ति का विश्वास नहीं किया जा सकता। इसलिए सनातन गोस्वामी ने मोहर वापिस नहीं लिए।

 

सत्यभामा देवी ही विष्णुप्रिया रूप से आईं और सत्राजित सनातन मिश्र रूप से आए। विष्णुप्रिया जी के साथ महाप्रभु का विवाह बाद में हुआ, पहले लक्ष्मीप्रिया जी के साथ हुआ था। महाप्रभु विवाह के बाद पूर्वबंग चले गए वहाँ भक्तों के साथ सब समय हरिकथा-कीर्तन में समय बिताते, वापिस नहीं आते। तब लक्ष्मीप्रिया देवी को विरह हुआ, महाप्रभु उन्हें पति रूप से मिले, उनकी देह अप्राकृत है, उन्होंने अप्राकृत भाव से विरहात्मक भजन दिखाया। विरह में लक्ष्मीप्रिया जी ने अपना शरीर छोड़ दिया और इस जगत से अपने धाम में चली गईं। उसके बाद महाप्रभु जब आए तो शची माता ने महाप्रभु को दूसरे विवाह के लिए समझाया और श्रीसनातन मिश्र की कन्या के साथ उनका विवाह हुआ। विष्णुप्रिया त्रिसन्ध्या गंगा स्नान करती थीं। वहाँ पर शची माता के साथ उनका मिलन हुआ और उनके साथ सम्बन्ध हो गया। बाद में महाप्रभु के साथ उनके विवाह का प्रस्ताव आया। महाप्रभु लीला में यह जो विवाह है, भगवान का विवाह भगवान की शक्ति के साथ है। यह विवाह जो कोई भी दर्शन करेंगे, उनकी संसार में आसक्ति नहीं रहेगी क्योंकि यह विवाह अप्राकृत है। राम-सीता का विवाह अप्राकृत है। भगवान अप्राकृत हैं, उनकी शक्ति भी अप्राकृत है, विष्णुप्रिया भी अप्राकृत हैं। वे चिन्मय शक्ति हैं। राम-लीला में वाल्मीकि मुनि ने लिखा, जब भगवान रामचन्द्र वनवास के बाद अयोध्या के राजा बने, तब सीता देवी को वन भेजा। सीतादेवी उन्हें पर संदेह नहीं था किन्तु प्रजा को सुख देने के लिए उन्होंने स्वयं कष्ट उठाया। एक बार अयोध्या में अश्वमेध यज्ञ हुआ। उस यज्ञ में ऋषियों ने कहा कि यह यज्ञ पत्नी के साथ करना पड़ेग, आप दूसरा विवाह कर लीजिए। रामजी ने कहा कि मैंने एक पत्नी व्रत धारण किया है, दूसरा विवाह नहीं करूँगा। तब स्वर्ण सीता का निर्माण किया गया। स्वर्ण सीता को निर्माण करके यज्ञ किया गया। वह सीता ही यहाँ गौर-लीला में विष्णुप्रिया रूप से आईं।

 

जब महाप्रभु संन्यास लेकर चले गए, तब उन्होंने घर के बाहर जाना बन्द कर दिया। वे प्रतिदिन शची माता के साथ गंगा स्नान को बाहर जातीं। सूर्य, चन्द्र का दर्शन करना भी बन्द कर दिया। भक्त भी केवल उनके पादपद्मों के ही दर्शन कर पाते। वे सब समय अश्रुयुक्त एवं विरहग्रस्त अवस्था में रहतीं और सब समय गौरांग महाप्रभु की पूजा और गौरांग महाप्रभु की मूर्ति रखकर भगवन्नाम करती रहतीं। इस तरह वे अपना दिन व्यतीत करती। वे दो घड़े लेकर अपनी दोनों ओर रख लेती थीं। एक में चावल रख लेतीं और एक तरफ खाली घड़ा रख लेतीं। महामन्त्र करते-करते एक चावल का दाना उठातीं और दूसरे घड़े में रखतीं। इस प्रकार तीसरे प्रहर तक जितने चावल दूसरे घड़े में इकट्ठे होते उसे पकाकर गौरांग महाप्रभु को निवेदन करतीं। श्रीमन् महाप्रभु के शिक्षाष्टक में जितनी भी शिक्षाएँ हैं, श्री विष्णुप्रिया देवी ने उन सब को ग्रहण किया।

 

तृणादऽपि सुनीचेन, तरोरऽपि सहिष्णुना।
अमानिना मानदेन, कीर्तनीयः सदा हरिः॥

 

चेतोदर्पणमार्जनं भवमहादावाग्नि-निर्वापणं
श्रेयः कैरवचन्द्रिकावितरणं विद्यावधूजीवनम्।
आनन्दाम्बुधिवर्धनं प्रतिपदं पूर्णामृतास्वादनं
सर्वात्मस्नपनं परं विजयते श्रीकृष्णसंकीर्त्तनम्॥

 

सब शिक्षाओं को ग्रहण करके जैसा महाप्रभु का आदेश है, उन्होंने उसी प्रकार भजन किया। उन्होंने केवल श्रीईशान ठाकुर और श्रीवंशीवदनानन्द ठाकुर पर कृपा करने के लिए जीवन धारण करके रखा। जो कृष्ण लीला में कृष्ण की बंसी है वही गौर लीला में वंशीवदनानन्द ठाकुर के रूप से आए। उस जगत की वंशी जड़ वस्तु नहीं है, सब चेतन है; अचेतन वस्तु नहीं है। भगवद् धाम में भूत-भविष्यकाल नहीं है। मात्र वर्तमान है। सब नित्य है।

 

विष्णुप्रिया देवी ने इस प्रकार भजन का आदर्श दिखाया। जब उनकी कृपा होगी तब हम लोगों को परा विद्या प्राप्त होगी, जिस विद्या से भगवान के साथ सम्बन्ध होता है, भगवान का भजन होता है, उनकी प्राप्ति हो सकती है। भगवान का भजन छोड़कर उन्होंने और कुछ भी नहीं किया। महाप्रभु प्रेम के वशीभूत होते हैं। प्रत्यक्ष रुप से वे दिखाई नही देते किन्तु शची माता के प्रेम से वशीभूत होकर वे वहाँ भी पहुँच गए थे। इसप्रकार आज जिन विष्णुप्रिया देवी का आविर्भाव है, उनकी अनन्त महिमा है। एक कामातुर बद्ध जीव भला कितना वर्णन कर सकता है।

 

जहाँ काम तहाँ नहीं राम, रवि रजनी नाहि मिले एक ठाम।।

 

हमारी जितनी उनमें शरणागति होगी उतनी मात्रा में भक्ति होगी। वे भक्ति स्वरूपिणी हैं। उनकी कृपा से परा विद्या की प्राप्ति होगी। वे ही नित्य शुद्धा सरस्वती हैं। वे चिन्मय शक्ति हैं। सभी वैष्णव उनकी आराधना करते हैं। जिससे वास्तविक मंगल, सब का मंगल होगा।

 

आज पुण्डरीक विद्यानिधि की भी आविर्भाव तिथि है। इन्होंने भी एक अद्भुत लीला करके दिखाई। पुण्डरीक विद्यानिधि कौन हैं? पुण्डरीक विद्यानिधि वृषभानु राजा हैं। पुण्डरीक विद्यानिधि चट्टग्राम चक्रशाला (वर्तमान बांग्लादेश) में आविर्भूत हुए। पुण्डरीक विद्यानिधि बाहरी रूप से बहुत धनी थे। बाद में वे गंगा के तट पर वास करने के लिए चट्टग्राम से नवदीप में आ गए। वहाँ पर उन्होंने एक भोगी व्यक्ति की लीला की। उनके घर में कोमल बिस्तर, इत्र की सुगन्ध इत्यादि भोग-विलास की सभी सामग्रियाँ थीं। बाहरी दृष्टी से देखने से कोई नहीं समझेगा कि वे भक्त हैं। उन्होंने अपने आप को छुपा कर रखा। महाप्रभु ने उनके नवद्वीप आने से पहले ही उनकी इच्छा जान ली और वे चिल्लाने लगे—पुण्डरीक रे! बाप रे! पुण्डरीक रे! बाप रे!’ महाप्रभु ने उन्हें इसप्रकार क्यों पुकारा? उन्होंने स्वकीय भाव से ऐसा कहा क्योंकि वे वृषभानु राजा हैं; राधा रानी के पिता हैं। इसलिए उसी सम्बन्ध से ‘बाप रे! बाप रे!’ कहा। महाप्रभु के साथ जो पार्षद थे वे समझे नहीं कि ‘बाप रे! बाप रे!’ किसे कहा। किन्तु महाप्रभु ने सब समझ लिया। चट्टग्राम वासी श्रीमुकुन्द, श्रीवासुदेव और श्रीगदाधर पण्डित महाप्रभु के आने के बाद चट्टग्राम से आकर नवद्वीप में रहने लगे। मुकुन्द दत्त जानते थे कि पुण्डरीक विद्यानिधि प्रभु बहुत बड़े वैष्णव हैं। मुकुन्द दत्त ने तब गदाधर पण्डित गोस्वामी को बोला कि आओ, तुम्हें एक वैष्णव के दर्शन करवाऊँ। गदाधर पण्डित गोस्वामी भी जानते हैं; गौर-कृष्ण की शक्ति हैं, किन्तु जगत-वासियों को शिक्षा देने के लिए उन्होंने पुण्डरीक विद्यानिधि के बारे में नहीं जानने का अभिनय किया। वे मुकुन्द दत्त के साथ चले गए। जब गदाधर पण्डित गोस्वामी वहाँ पहुँचे और उन्होंने सब भोग की वस्तुएँ तथा वैभव-विलास देखा, तो उन्होंने सोचा कि यह मुझे कहाँ पर ले आए? यह तो किसी विषयी का घर है। मुकुन्द दत्त समझ गए कि गदाधर पण्डित गोस्वामी पुण्डरीक विद्यानिधि की वैष्णवता को नहीं समझे। तब मुकुन्द दत्त ने श्रीमद्भागवत से एक श्लोक का उच्चारण किया।

 

अहो बकी यं स्तनकालकूटं
जिघांसयापाययदप्यसाध्वी।
लेभे गतिं धात्र्युचितां ततोऽन्यं
कं वा दयालुं शरणं व्रजेम।
(श्रीमद्भागवत 3.2.23)

 

जो बकासुर की बहन (बकी) पूतना स्तन में कालकूट ज़हर मिलाकर कृष्ण को मारने के लिए आई, उसे भी धात्रि के समान गति प्रदान की। उन परम दयालु श्रीकृष्ण के बिना मैं और किसकी शरण में जाऊँ?

 

पूतना कंस के आदेश से व्रज के जितने भी शिशु थे, सबको मार रही थी। वह सुन्दर नारी का रूप लेकर नन्द भवन में आ गई। यशोदा और रोहिणी देख रही हैं कि यह सुन्दर नारी कहाँ से आ रही है। उन्होंने कृष्ण को सुला दिया था। पर उसकी सुन्दरता देख कर सोचा कि इसे कृष्ण को प्यार करने देते हैं। वह एक डायन है—यह कोई नहीं जानता। इसलिए उसकी सुन्दरता देखकर किसी ने उसे अन्दर जाने से मना नहीं किया। तब उसने अन्दर जाकर कृष्ण को अपने पास लिया और बलपूर्वक अपना स्तन कृष्ण के मुख में डाल दिया। उस विष का प्रभाव ऐसा था कि स्पर्श मात्र से ही मृत्यु हो जाए। परन्तु कृष्ण इतनी ज़ोर से स्तन पीने लगे कि पूतना को दर्द होने लगा और अपना स्तन छुड़ाते हुए कहने लगी— बस बहुत हो गया, बहुत पी लिया। किन्तु तब कृष्ण रुके नहीं और पीते-पीते उसके प्राणों को ही पी गए। जब नन्द महाराज वहाँ गए और पूतना को मरा हुआ देखा, तब भी उन्होंने यह नहीं सोचा कि मेरे पुत्र ने उसे मारा। सबने यही सोचा कि किसी दैव से इसका वध हो गया। तब कृष्ण को उन्होंने गोद में ले लिया।

 

पुण्डरीक विद्यानिधि प्रभु कौन है? वाणेश्वर जी उनके पिता और गंगादेवी उनकी माता हैं। जैसे वृषभानु राजा की पत्नी कीर्तिदा देवी हैं, उसी प्रकार यहाँ पर रत्नावती देवी पुण्डरीक विद्यानिधि प्रभु की पत्नी हैं। वही अप्राकृत लीला कर रहे हैं। जैसे ही पुण्डरीक विद्यानिधि प्रभु ने यह श्लोक सुना, वह लीला स्मरण करते-करते, ‘हा कृष्ण!’ बोलकर, वे भूमि पर गिर गए और लोट-पोट होने लगे। यह देखकर गदाधर पण्डित गोस्वामी को आश्चर्य हो गया उन्होंने सोचा कि मैंने तो अपराध किया। उस अपराध से मुक्त होने के लिए गदाधर जी ने उनसे मन्त्र लिया। पुण्डरीक विद्यानिधि प्रभु ने इस प्रकार लीला की। इस प्रकार कृष्ण लीला में जितने पार्षद हैं, सभी गौर लीला में भी सम्मिलित हुए।

 

पुण्डरीक विद्यानिधि कभी भी गंगा स्नान करने के लिए नहीं जाते थे, केवल गंगाजल का आचमन कर लेते थे। उनका ऐसा विचार था कि स्नान करने से पैरों से स्पर्श करना पड़ेगा। गंगाजी तो भगवान के चरणों से निकली हैं, पवित्र हैं, पूज्य हैं, उनमें हम पैर कैसे डाल सकते हैं? वे गंगा दर्शन करने के लिए भी मध्य रात्रि में जाते थे जब वहाँ कोई नहीं होता था क्योंकि दिन के समय लोग वहाँ पर कुल्ला, दन्तधावन, कपड़े धोना जैसे अनाचार करते थे, जिसे देखकर उन्हें दुःख होता था। इसलिए वे मध्यरात्रि में जाकर केवल दूर से ही प्रणाम करते थे।

 

एक बार वे पुरी में गए। वहाँ स्वरूप दामोदर से उनकी मित्रता हुई। एक दिन जब वे जगन्नाथ मन्दिर में पहुँचे, तब उड़न-षष्ठी थी। उड़न-षष्ठी में पण्डा लोग जगन्नाथ जी को गरम कपड़े देंते हैं। तो उन्होंने माण्ड युक्त गरम कपड़े जगन्नाथ-बलदेव जी को पहनाए। (माण्ड युक्त वस्त्र बिना धोकर पहनने से अपवित्र माना जाता है)। पुण्डरीक विद्यानिधि प्रभु ने जब यह देखा तो अपने मित्र स्वरूप दामोदर से कहा कि जगन्नाथ जी के सेवकों ने बिना धोए माण्ड वाले वस्त्र जगन्नाथ जी को क्यों दे दिए? क्या उन्हें इतना ज्ञान नहीं है? स्वरूप दामोदर तब कहते हैं कि भगवान की जो इच्छा है, वे कर सकते हैं। तब विद्यानिधि जी कहते हैं, “भगवान तो निर्गुण हैं किन्तु क्या सभी भगवान हो गए? सेवक तो निर्गुण नहीं हैं, उन्हें तो गुण-दोष का विचार करना चाहिए।”

 

जगन्नाथ जी जहाँ पर रहते हैं, वहाँ पर बहुत सावधान रहना चाहिए। उनके सेवक में दोष देखना उचित नहीं है। ऐसा करने से परिणाम अच्छा नहीं होगा। इसी प्रकार एक बार चाकदाह मठ में एक घटना हुई। वहाँ एक ब्रह्मचारी की वहाँ के कुछ स्थानीय लोगों से कुछ बहस हो गई और उन्होंने उस ब्रह्मचारी को पीटा। बाद में मेरे पास यह समाचार आया। मैंने उस ब्रह्मचारी को वहाँ से दूसरे मठ में भेज देने के लिए कहा। तब भी मैंने यही बात कही थी कि उस ब्रह्मचारी की मुझे इतनी चिन्ता नहीं है क्योंकि वह तो भगवान का सेवक है। चिन्ता तो मुझे उन लोगों की है जिन्होंने जगन्नाथ जी के सेवक को मारा। जगन्नाथ जी उनके साथ क्या करेंगे?

 

जगन्नाथ जी का अपने सेवक के प्रति बहुत प्रीति रहता है, कोई उन्हें सेवक के बारे में कुछ कहें वे सहन नहीं करते। थोड़ी सी सेवा करने से उनका संतोष हो जाता है। जैसे पिता-माता का अपने बच्चे के ऊपर स्नेह रहता है उसी प्रकार जगन्नाथ का अपने सेवकों के प्रति स्नेह रहता है। जब जगन्नाथ मंदिर में जाओ तो वहाँ उनके सेवकों को कुछ बोलना नहीं। रामानुजाचार्य जी ने भी एक बार ऐसे ही जगन्नाथ जी के सेवकों में दोषारोपण किया था। उसके फलस्वरूप जगन्नाथ देव ने उन्हें क्षेत्र मण्डल से बाहर निकाल दिया और जब वे अगले दिन सुबह उठे तो उन्होंने स्वयं को अपने स्थान (रंगक्षेत्र) में पाया।

 

पुण्डरीक विद्यानिधि प्रभु तब वहाँ से चले गए। रात्रि में कृष्ण-बलराम दोनों उनके स्वप्न में आए, उनके दोनों गालों को पकड़ा और थप्पड़ मार-मारकर उनके गालों को लाल कर दिया। यह एक प्रकार से भगवान का आशीर्वाद भी है और शिक्षा भी। जगन्नाथ जी पुण्डरीक विद्यानिधि जी को कहते हैं—“यह लोग सदाचार नहीं जानते तो तुम यहाँ क्यों आए हो? जाओ, अपने स्थान पर वापिस चले जाओ।” अगले दिन जब वे स्वप्न टूटने पर उठे तो उनके गालों पर थप्पड़ों के आघात के निशान थे और उनके गाल फूले हुए थे। उनके फुले गालों को देखकर सभी हँसने लगे। विद्यानिधि जी भगवान के इतने प्रिय हैं कि उन्होंने उन पर शासन किया। आज उनकी आविर्भाव तिथि है। उनकी कृपा होने से क्या नहीं हो सकता? सब कुछ प्राप्त हो सकता है।

 

अभी और भी बहुत विषय हैं। आज रघुनाथ दास गोस्वामी की भी आविर्भाव तिथि है। वे भी भगवान के पार्षद हैं। उनका नाम रति मंजरी अथवा भानुमति है। वे सखियों की परिचारिका(दासी) के रूप में सेवा करती हैं। उनके अन्दर इतना वैराग्य था। वे गोवर्धन मजूमदार के पुत्र रूप से कृष्णपुर ग्राम में आविर्भूत हुए। इनके कुल पुरोहित श्रीबलराम आचार्य और कुल-गुरु श्रीयदुनन्दन आचार्य चाँदपुर में रहते थे। नामाचार्य श्रील हरिदास ठाकुर जब (रामचन्द्र खां द्वारा प्रेरित) वेश्या का उद्धार करके वेनापोल जंगल को छोड़कर, चाँदपुर में श्रीबलराम आचार्य के घर में ठहरे थे, उसी समय श्री रघुनाथ दास गोस्वामी को श्रीहरिदास ठाकुर जी के दर्शन करने का सुयोग प्राप्त हुआ था। श्री हरिदास ठाकुर को हरिनाम करते हुए दर्शन करने के बाद उनका हृदय परिवर्तित हो गया। यद्यपि रघुनाथ दास गोस्वामी भगवान के नित्य पार्षद हैं, तब भी यह शिक्षा देने के लिए कि वैष्णव के संग से ही भक्ति होगी—उन्होंने ऐसी लीला की।

 

श्रीहिरण्य और गोवर्धन मजूमदार की वार्षिक आय आठ लाख मुद्रा हुआ करती थी। उन दिनों एक मुद्रा अथवा एक रुपये में आठ मन चावल आ जाते थे। हमारे बचपन के समय में भी दो रुपये में एक मन चावल मिलते थे। अतः उस समय के एक रुपये का मूल्य वर्तमान मूल्य से कई गुना अधिक था। श्रीरघुनाथदास पूरे वंश की संपत्ति के एक मात्र अधिकारी होने पर भी बचपन से ही विषयों से उदासीन थे। महाप्रभु संन्यास लेने के बाद जब शान्तिपुर में अद्वैताचार्य जी के घर में पधारे थे, उस समय रघुनाथदास गोस्वामी जी को उनके दर्शनों का लाभ प्राप्त करने का पहला अवसर मिला था। श्रीमन्महाप्रभु के दर्शन करने से उन्हें बहुत आकर्षण हुआ। श्रीगोवर्धन मजूमदार अद्वैताचार्य जी में बहुत श्रद्धा करते थे। रघुनाथ दास जी के पिता के सम्बन्ध से अद्वैताचार्य जी का उनके प्रति बहुत स्नेह था। जितने दिन रघुनाथ दास जी शान्तिपुर में रहे, अद्वैताचार्य जी उन्हें श्रीमन्महाप्रभु का अवशेष देते थे। जब महाप्रभु शान्तिपुर से पुरी की ओर जाने लगे, तब रघुनाथ दास घर आकर ज़ोर-ज़ोर से रोने लगे। (उनकी प्रेमोन्मत्त अवस्था देखकर उनके पिता ने) उनकी रक्षा करने के लिए ग्यारह प्रहरियों को लगा दिया। उन्हें घर में बन्द करके रख दिया। फिर भी रघुनाथ दास गोस्वामी महाप्रभु के दर्शनों के लिए जिस किसी प्रकार बार-बार घर से भाग जाते और बार-बार पकड़े जाते।

 

पुनः महाप्रभु कानाइ नाटशाला से वापिस लौटते हुए शान्तिपुर में आए। महाप्रभु के वापिस लौटने का कारण था कि रामकेलि ग्राम में सनातन गोस्वामी ने महाप्रभु से कहा था कि इतने लोगों के साथ वृन्दावन जाना उचित नहीं है, अकेले जाने से अच्छा है। मुस्लिम राज्य है, इतने लोगों को साथ में लेने से उनकी चिन्ता करनी पड़ेगी। महाप्रभु के शान्तिपुर में आने का समाचार सुनकर रघुनाथ दास गोस्वामी उनके पुनः दर्शन करने के लिए आ गए। श्रीरघुनाथ दास गोस्वामी ने महाप्रभु के पास यह निवेदन किया कि मैं संसार में नहीं रहना चाहता। तब महाप्रभु ने कहा—

 

स्थिर हया घरे जाओ न हओ वातुल।
क्रमे-क्रमे पाय लोक भवसिन्धु कूल॥
मर्कट वैराग्य ना कर लोक दिखाईया।
यथायोग्य विष्य भुंज अनासक्त हया॥
(चै॰च॰म॰ 16/237-239)

 

ऐसा बोल दिया।

 

अन्तरे निष्ठा कर बाह्ये लोक व्यवहार।
अचिरात कृष्ण तोमाय करिबे उद्धार॥

 

अन्दर में निष्ठा रखकर बाहर से लोक-व्यवहार करो। अभी इतना शीघ्र संसार नहीं छोड़ना। स्थिर होकर घर में जाओ। सब धीरे-धीरे होगा, अचानक नहीं होगा। इसलिए पागल नहीं बनना। बन्दर की तरह वैराग्य नहीं करना। बन्दर क्या करता है, बन्दर अनिकेत है(जिसका कोई घर नहीं होता), शरीर पर कपड़ा नहीं रखता, नांगा बाबा है और फल-मूल खाता है। ऐसा वैराग्य दिखाता है। चुपचाप बैठकर देखता है। जैसे ही आपका ध्यान इधर-उधर होगा, वह झट से आपका सामान झपटकर भाग जाएगा। ऐसे बन्दर की तरह वैराग्य दिखाने की आवश्यकता नहीं है। युक्त वैराग्य करो, फल्गु वैराग्य मत करो। भगवान की सेवा के लिए जो-जो भी अनुकूल है, यदि विषय समझकर उसे छोड़ देते हैं, वह फल्गु वैराग्य है।

 

तब वे घर वापिस आ गए और अन्दर में निष्ठा रखकर बाहर से विषय-कार्यों में लग गए। उनकी संसार के प्रति अनुकूल भावना को देखकर उनके माता-पिता के मन में बड़ा सुख हुआ। धीरे-धीरे उन्होंने उनके लिए पहरेदार रखने की आवश्यकता नहीं समझी, और सब पहरेदारों को हटा दिया। कुछ समय बाद रघुनाथ दास गोस्वामी महाप्रभु के पास जाने के लिए पुनः व्याकुल होने लगे। यह देखकर उनके घरवालों ने उन्हें संसार में बांधने के लिए अप्सरा के समान सुन्दर स्त्री के साथ उनका विवाह कर दीया। किन्तु वे विवाह के बंधन द्वारा भी वे उन्हें रोक नहीं सके।

 

(उस समय राजा और ज़मींदार के बीच एक बिचौलिया होता था, जो प्रजा से कर वसूल करके, उसका एक चौथाई हिस्सा अपने पास रखकर बाकी ज़मींदार के खजाने में जमा करवा देता था।) हिरण्य मजूमदार ने बिचौलिये मुसलमान चौधरी को हटाकर (सप्तग्राम के मुलुकपति से) सीधा सम्बन्ध बना लिया जिससे वह मुसलमान चौधरी अपने हिस्से में आने वाले साल के 3 लाख रुपयों से वंचित हो गया। इस कारण वह हिरण्य-गोवर्धन का दुश्मन बन गया। उसने जाकर राजा को शिकायत कर दी जिसके फलस्वरूप हिरण्य और गोवर्धन भाग गए। इसलिए राजा के वज़ीर ने रघुनाथ दास जी को बन्दी बना लिया। तब रघुनाथ दास जी बड़े प्यार से चौधरी से कहते हैं—“आप भाई-भाई कभी लड़ाई करते हैं और कभी प्यार करते हैं। आप कब क्या करें यह जानना कठिन है। मैं जैसे अपने पिता का पुत्र हूँ, वैसे ही आपका भी पुत्र हूँ।” रघुनाथ जी की स्नेहपूर्ण बातें सुनकर वह मुसलमान चौधरी रोने लगे और उसने रघुनाथ जी को मुक्त करा दिया। इस प्रकार रघुनाथ जी ने अपनी मधुर वाणी और चतुराई भरे व्यवहार से पिता और ताऊ के साथ चल रहे उस मुसलमान चौधरी के झगड़े को शान्त करके सबको वश में कर लिया और धीरे-धीरे सब सामान्य हो गया।

 

एक दिन रात्रि के अन्त में यदुनन्दन आचार्य रघुनाथ दास जी के पास आकर बोले कि मेरे शिष्य ने ठाकुर जी की सेवा छोड़ दी है। तुम उसे समझा-बुझाकर ले आओ और पुनः सेवा में लगा दो। रघुनाथ दास जी अपने गुरुदेव के साथ चल पड़े। आधा रास्ता तय करने के बाद उन्होंने अपने कुलगुरु से कहा—मैं पुजारी को समझा-बुझाकर आपके पास भेज दूँगा, आपको इतना कष्ट करने की कोई अवश्यकता नहीं है। इतना कहकर रघुनाथ जी ने अपने कुलगुरु को वापिस भेज दिया और स्वयं उनसे विदा की आज्ञा ली। वहाँ से रघुनाथ जी भाग गए और पुरी की ओर प्रस्थान किया। वे गाँव का मार्ग छोड़कर जंगलों के मार्ग पर चलते रहे। उन्होंने मार्ग में केवल तीन दिन ही भोजन किया और बारह दिन में वे जगन्नाथ पुरी आ पहुँचे। जगन्नाथ धाम पहुँचकर वे महाप्रभु के पास गए और उन्हें दण्डवत् प्रणाम किया। उन्हें देखकर महाप्रभु को बहुत आनन्द हुआ।

 

महाप्रभु ने रघुनाथ जी की सेवा की व्यवस्था कर दी (महाप्रभु के सेवक गोविन्द रघुनाथ जी को श्रीमन्महाप्रभु का बचा हुआ प्रसाद देते थे।) । उन्होंने केवल पाँच दिन तक महाप्रभु का बचा हुआ प्रसाद ग्रहण किया। छठे दिन से उन्होंने सिंहद्वार पर भिक्षा के लिए खड़ा होना आरंभ कर दिया। जब महाप्रभु जी के सेवक गोविन्द ने महाप्रभु जी को यह बताया तो उन्हें बहुत संतोष हुआ। श्रील रघुनाथ दास जी के वैराग्य की तीव्रता में क्रमश: वृद्धि होने लगी। वे सिंहद्वार पर भिक्षा करना छोड़कर छत्र में माँगकर खाने लगे। अपने सेवक गोविन्द से यह बात सुनकर महाप्रभु ने रघुनाथ दास जी के इस कृत्य की प्रशंसा करते हुए कहा कि सिंहद्वार पर भिक्षा वृत्ति वेश्या के आचार की भांति है।

 

धीरे-धीरे उन्होंने छत्र में माँगकर खाना भी छोड़ दिया। श्रीजगन्नाथ जी के महाप्रसाद विक्रेता दो-तीन दिन का बासी कीचड़ से सना महाप्रसाद सिंहद्वार पर फेंक देते थे जिससे बड़ी सड़ान्ध निकलती थी जिसके कारण तैलंगी गौएँ (दक्षिण भारत की गायें) भी उसे नहीं खा पाती थीं।किन्तु रघुनाथ दास गोस्वामी रात में उस सड़े हुए अन्न से कुछ अन्न अपने निवास स्थान पर लाकर तथा उसे जल से धोकर उसमें (अर्थात् जो चावल के अंश उसमें बासी होने पर भी अभी बिल्कुल गले नहीं हैं) नमक डालकर खाते थे। रघुनाथ जी के उन चावलों को देखकर महाप्रभु जी कहते हैं कि आप स्वयं जब बढ़िया वस्तुएँ खाते हो तो फिर मुझे क्यों नहीं देते हो और ऐसा कहते-कहते श्रीमन्महाप्रभु जी ने एक ग्रास खा लिया। जब दुबारा ग्रास लेने लगे तो उस समय स्वरूप दामोदर जी ने उनका हाथ पकड़ लिया और ये कहते हुए कि प्रभो, ये आपके योग्य नहीं है, उनसे बलपूर्वक छीन लिया।

 

महाप्रभु के अन्तर्धान के बाद रघुनाथ दास जी ने राधा कुण्ड में रहकर तीव्र भजन किया। वे केवल एक डोना मठा(छाछ) लेते थे। राधा कुण्ड में घाट पक्के नहीं थे। एक बार रघुनाथ दास जी की इच्छा हुई कि यहाँ पर पक्के घाट बनें। फिर दूसरे ही क्षण उन्होंने अपने आप को इस इच्छा के लिए धिक्कारा और यह विचार छोड़ दिया। एक सेठ बद्री नारायण जी को सेवा देना चाहता था। तब बद्री नारायण जी ने (स्वप्न में) कहा कि वृन्दावन में राधा कुण्ड में मेरा एक सेवक है—रघुनाथ। यह धन तुम उसे दे दो। ऐसे वह धन नहीं लेगा इसलिए वहाँ जाकर तुम बोलना कि आपकी इच्छा हुई थी राधा कुण्ड-श्याम कुण्ड का उद्धार होना चाहिए। इसलिए बद्री नारायण जी ने मुझे यह आदेश दिया। यह बोलने से वह ले लेगा।

 

एक दिन रघुनाथ दास जी को भोजन का ठीक हाज़मा न होने के कारण कुछ अस्वस्थता हुई। चिकित्सकों ने जांच करने के बाद बताया कि दूध-चावल खाने से इन्हें पेट दर्द हुआ है। यह सुनकर सबने कहा कि यह कैसे हो सकता है, ये तो सिर्फ माठा खाते हैं। तब रघुनाथ दास गोस्वामी ने कहा कि उन्होंने मन-मन में दूध-भात खाया था। वे इस प्रकार मानसिक सेवा करते थे।

 

रघुनाथ दास गोस्वामी वैराग्य की मूर्ति हैं, भगवान वे पार्षद है। सिद्धार्थ के वैराग्य और रघुनाथ के वैराग्य में स्थूल दृष्टी से देखने से कुछ समानता दिखाई देने पर भी रघुनाथ के वैराग्य में अन्तर्निहित गाम्भीर्य एवं वैशिष्ट्य है। उनका वैराग्य केवल मात्र भगवान के लिए है। जितनी भगवान के प्रति प्रीति होगी उतना ही संसार से आसक्ति कम हो जाएगी। यह वैराग्य बाहर में दिखाने के लिए नहीं है। भगवान के लिए विरहात्मक भजन।

 

आज रघुनन्दन ठाकुर जी की भी आविर्भाव तिथि है। रघुनन्दन ठाकुर मुकुन्द दास के पुत्र हैं। श्रीखण्डवासी भक्तवृन्दों में श्रीमुकुन्द दास, श्रीरघुनन्दन और श्रीनरहरि प्रधान हैं। रघुनन्दन ठाकुर भगवान के सखा हैं। वैसे तो रघुनन्दन ठाकुर चतुर्व्यूह के अन्तर्गत प्रद्युम्न के ही स्वरूप हैं किन्तु गोविन्द ब्रज लीला में वे प्रियनर्म सखा बनकर रहे। वे सख्य रस में भगवान की सेवा करते हैं। छोटे बच्चे हैं, किन्तु तत्त्व में भगवान के पार्षद हैं।

 

मुकुन्द दास जी घर में ही श्रीगोपीनाथ जी की सेवा करते थे। एक बार उन्हें किसी कार्य के लिए बाहर जाना था। इसलिए उन्होंने अपने पुत्र रघुनन्दन को बुलाकर कहा कि आज तुम ठाकुर जी को भोग लगाओ। रघुनन्दन तो जानते नहीं, वे तो बालक हैं। रघुनन्दन जी सेवा की सामग्री लेकर श्रीगोपीनाथ जी के पास आये और सरल भाव से रोते-रोते सखा की तरह गोपीनाथ जी को कहने लगे, “गोपीनाथ! लो…लो….खाओ….खाओ। शीघ्र-शीघ्र खा लो। पिताजी आने वाले हैं, तुम नहीं खाओगे तो पिताजी गुस्सा करेंगे।” गोपीनाथ जी ने प्रेम के वश में होकर सब भोग खा लिया। जब श्रीमुकुन्द दास लौटे तो बालक को कहा कि जाकर नैवेद्य प्रसाद लाओ तो बालक ने कहा कि वह तो गोपीनाथ जी ने सब खा लिया, कुछ भी तो नहीं छोड़ा। यह सुनकर श्रीमुकुन्द विस्मित हो गए। वे सोचने लगे कि यह तो झूठ नहीं बोलता। फिर किसी और दिन बालक को सेवा करने के लिये कहकर स्वयं घर से बाहर जाकर और फिर घर में आकर छुप गए। इधर श्रीरघुनन्दन ने बड़ी प्रसन्नता के साथ श्रीगोपीनाथ जी को लड्डू दिया और लो खाओ, लो खाओ—ऐसा कहने लगे। वे कोई मन्त्र नहीं जानते थे। श्रीगोपीनाथ जी ने जब आधा लड्डू खा लिया तो उसी समय श्रीमुकुन्द जी कमरे में देखने के लिये आ गए। आधा लड्डू जो बच गया था, उसे श्रीगोपीनाथ जी ने नहीं खाया। यह देखकर मुकुन्द प्रेम में विभोर हो गए उनके नयनों से अश्रुधारा बहने लगी, कण्ठ गदगद हो गया और अति प्रसन्न होकर उन्होंने रघुनन्दन को गोद में उठा लिया।

 

रघुनन्दन ठाकुर जी ने श्रीनिवासाचार्य जी को पहले ही बोल दिया था कि जब महाप्रभु और उनके पार्षद यहाँ से चले जाएँगे, भक्ति की धारा अवरुद्ध हो जाएगी। शुद्ध भक्ति मार्ग को कोई नहीं समझेगा। ऐसा ही देखा गया। महाप्रभु के जाने के बाद कोई महाप्रभु की शिक्षा को नहीं समझा यद्यपि श्रीमद्भागवत, श्रीचैतन्यचरितामृत आदि ग्रन्थ तब भी थे, किन्तु भगवान कि कृपा के बिना उन ग्रंथों को नहीं समझा जा सकता है। बहुत सी अपसम्प्रदाय आ गईं। तब महाप्रभु ने कमल मंजरी और नयनमणि मंजरी को, श्रील भक्तिविनोद ठाकुर और श्रील प्रभुपाद रूप से भेज दिया और पुनः इस संसार में शुद्ध भक्ति का प्रचार करवाया।

 

आज श्रील विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर जी की भी तिरोभाव तिथि है। इन्हें, जगत को भक्ति का मार्ग दिखाने के कारण विश्वनाथ और भक्तों में श्रेष्ठ होने के कारण चक्रवर्ती की उपाधि से विभूषित किया गया था। श्रीविश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर जी के तीन ग्रन्थों के विषय में अभी भी साधारण वैष्णवों में ऐसी कहावत है—‘किरण-बिन्दु-कणा। एई तिन निये वैष्णव पणा॥’ इन्होंने श्रील रूप गोस्वामी जी द्वारा रचित – उज्ज्वलनीलमणि ग्रन्थ के तात्पर्य पर प्रकाश डालनेवाले उज्ज्वलनीलमणि किरण, भक्तिरसामृत सिन्धु के भक्ति लक्षणादि पर प्रकाश डालने वाले भक्तिरसामृतसिन्धु बिन्दु, लघु भागवतामृत के सार संकलन के रूप में श्री भागवतामृत कणा—इन ग्रन्थों की रचना की। श्रील विश्वनाथ चक्रवर्तीपाद जब बहुत वृद्ध हो गए थे, तब वे वृन्दावन में ही रहते थे। बलदेव विद्याभूषण प्रभु उनसे श्रीमद्भागवत का अध्ययन करते थे। एक दिन जयपुर के महाराजा ने उनके पास संवाद भेजा कि हम सब तो आपके शिष्य हैं किन्तु रामानुज सम्प्रदाय के कुछ आचार्य यहाँ आकर कहते हैं कि गौड़ीय सम्प्रदाय की कोई वेदान्त की व्याख्या नहीं है, इसलिए वह चार वैष्णव सम्प्रदायों से बाहर है। इसलिए वे हमें पुनः रामानुज सम्प्रदाय में दीक्षा लेने के लिए कह रहे हैं। अतः महाराज ने उन्हें जयपुर में आने के लिए प्रार्थना की। श्रील विश्वनाथ चक्रवर्ती वृद्ध होने के कारण नहीं गए और श्री बलदेव विद्याभूषण को भेज दिया। श्री बलदेव विद्याभूषण ने वहाँ जाकर उन्हें समझाया कि श्री वेदान्त के रचयिता वेदव्यास मुनि ने वेदान्त का अर्थ स्वरूप श्रीमद्भागवत ग्रन्थ लिखा। तब और अर्थ करने की क्या ज़रूरत है? परन्तु तब भी न मानने पर उन्होंने उनसे सात दिन का समय माँगा। सात दिन में कोई यह कार्य कर सकता है? उन्होंने गोविन्द देव जी के मंदिर में जाकर उन्हें प्रणाम किया और उनसे आशीर्वाद माँगा। तब उन्हें उनकी प्रसादी माला मिली। उसके बाद उन्होंने लिखना आरंभ किया और सात दिन में समग्र वेदान्त भाष्य लिख लिया। तब गलता गद्दी में सभा हुई और उन्होंने वहाँ पर वह भाष्य सुनाया। उनके प्रेमपरक भाष्य को सुनकर सभी आश्चर्य-चकित रह गए और कुछ न बोल सके।

 

महाप्रभु स्वयं भगवान् है किन्तु शास्त्रों को मर्यादा देने के लिए उन्होंने चार सम्प्रदाय के अन्तर्गत ब्रह्म-मध्व सम्प्रदाय को स्वीकार किया। इसलिए शास्त्रों को मानकर चलना चाहिए। किन्तु महाप्रभु जो उन्नत उज्ज्वल रस प्रदान करने आए थे, उनकी शिक्षा गौडीय संप्रदाय में माधवेन्द्र पुरीपाद जी द्वारा आरंभ हुई, उन्होंने उस रस के बारे ने के बारे में वर्णन किया। उनसे पहले किसी ने भी इसके बारे में नहीं कहा था।

 

आज श्रील भक्ति विवेक भारती गोस्वामी महाराज जी की भी तिरोभाव तिथि है। उन्होंने बहुत विशाल मठ स्थापन किया(श्री सारस्वत गौड़ीय आसन मिशन)। उनका बहुत ही दीर्घ शरीर था। उस समय माइक इत्यादि उपकरण नहीं हुआ करते थे। फिर भी उन्होंने विपुल प्रचार किया। वे एक असाधारण व्यक्ति थे। उन्होंने पूज्यपाद सन्त गोस्वामी महाराज जी इत्यादि अपने गुरुभ्राताओं के साथ अनेक स्थानों पर प्रचार किया, आज उनकी अप्रकट तिथि है।

 

आज भगवद् पार्षदों की आविर्भाव/तिरोभाव तिथि है। विष्णुप्रिया देवी, पुण्डरीक विद्यानिधि प्रभु, रघुनाथ दस गोस्वामी, रघुनन्दन ठाकुर, विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर सभी के पादपद्मों में अनन्त कोटि साष्टांग दण्डवत् प्रणाम करते हुए उनकी अहैतुकी कृपा प्रार्थना करते हैं। उनके अभिन्न स्वरूप हमारे गुरुजी के पादपद्मों में अनन्त कोटि साष्टांग दण्डवत् प्रणाम करते हुए उनकी अहैतुकी कृपा प्रार्थना करते हैं। हमने जाने-अनजाने में जो कोई अपराध किए हों, वे उन्हें क्षमा करें। वाञ्छा………

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