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कंचन , कामिनी एवं प्रतिष्ठा की इच्छा

काम (वासना) ही प्रत्येक जीव का हृदय-रोग है ।

 

 

एक बद्ध- जीव अपनी सामर्थ्य से ‘काम’ को नहीं जीत सकता। श्रीकृष्ण – विमुख होने से ही हम काम (वासना) के शिकार हो जाते हैं। श्रीकृष्ण के नित्य दास होते हुए भी जिनकी भगवान श्रीकृष्ण की सेवा में रुचि नहीं है, वे ही इस प्रकार से दण्डनीय हुए हैं अर्थात उन्हें ही ये सज़ा दी गयी है। यदि वासना के मूल कारण को नहीं उखाड़ा जाता तो हम ‘काम’ पर विजय कैसे प्राप्त कर सकते हैं। जब हम श्रीकृष्ण से विमुख होते हैं तथा माया का भोग करना चाहते हैं तो माया तुरन्त हमें अपने आगोश में ले लेती है और हम स्थूल शरीरों के झूठे अहंकार में फंस जाते हैं। इस प्रकार हम अनन्त काल से जन्म – मृत्यु के चक्र में पड़े हुए हैं एवं जन्म – मृत्यु के दावानल व त्रिताप में जल रहे हैं । श्रीकृष्ण के पाद-पद्मों में पूर्ण एवं निष्कपट समर्पण ही जागतिक दुखों से मुक्त होने का एक मात्र उपाय है। अनेक जन्मों से उपार्जित विषय- भोगों की इच्छा एवं अहंकार – युक्त मानसिकता की स्थिरता के कारण किसी बद्ध जीव के लिए समस्त जागतिक अभिमानों को छोड़ना एवं श्रीकृष्ण के पाद-पद्मों की निष्कपट शरण ग्रहण करना कोई आसान कार्य नहीं है । पारमार्थिक जीवन में उन्नति प्राप्त करने के लिए प्रामाणिक आचारवान शुद्ध-भक्तों का संग अत्यावश्यक है । जैसा हम चाहते हैं, वैसा परिणाम हम अकस्मात प्राप्त नहीं कर सकते, इसमें समय लगता है। कितना समय लगेगा, यह साधना की तीव्रता पर निर्भर करता है। अम्बरीष महाराज जैसे महान भक्त भी अपनी कामनाओं पर धीरे – धीरे ही विजय प्राप्त कर सके थे। हमें बल, अटल विश्वास एवं धैर्य के साथ साधन करते रहना चाहिए।

 

इसके लिए भक्त – चरित्रों एवं श्रीमद भागवत से भक्तों की जीवनियों का स्वाध्याय करना बेहतर होगा क्योंकि इससे हमें प्रेरणा मिलती है कि कैसे – कैसे उन भक्तों ने भगवान को प्राप्त किया। जब कोई व्यक्ति विषय – भोगों की अपूर्णता व उनके दुखद परिणाम को जान लेता है।

 

हम अपने ही अच्छे – बुरे कर्मों के फल का भोग करते हैं। हमें अपने कर्मों के कारण प्राप्त होने वाले दुखों के लिए दूसरों को दोष नहीं देना चाहिए। बद्ध जीव अपनी सामर्थ्य से तब तक माया के फंदे से स्वयं को मुक्त नहीं कर सकता जब तक वह श्रीकृष्ण से विमुख रहता है। प्रत्येक बद्ध जीव – कंचन,कामिनी व प्रतिष्ठा की कामना- वासना से आकर्षित होता है। केवल मात्र निष्कपट एवं पूर्ण शरणागत जीव ही श्रीकृष्ण एवं उनके अभिन्न प्रकाश विग्रह – श्रीगुरुदेव की कृपा से ही माया के फंदे से स्वयं को मुक्त कर सकता है। भगवान के चरणों में शरणागति ही समस्त रोगों की ‘राम – बाण’ औषधि है। हृदय की गहराई से की गई प्रार्थना ही शरणागति की सर्वोत्तम अभिव्यक्ति है।

 

मैं आपके व आपकी सहधर्मिणी के गिरते हुए स्वास्थ्य के बारे में जानकार बहुत चिंतित हूँ। यह संसार हमारा सदा रहने का स्थान नहीं है। जिसने जन्म लिया है वह एक दिन अवश्य ही मृत्यु को प्राप्त होगा। बुद्धिमान व्यक्ति अवश्यम्भावी घटनाओं के लिए शोक नहीं किया करते। जीव भगवान श्रीकृष्ण की इच्छा से ही आते और जाते हैं। अज्ञान के कारण ही हम उन्हें अपना मान लेते हैं और उनके प्रति आसक्त हो जाते हैं। सभी जीवों का श्रीकृष्ण से नित्य सम्बन्ध है। जब जीव अपनी अणु – स्वतन्त्रता के कारण श्रीकृष्ण से विमुख हो जाते हैं तब श्रीकृष्ण की माया-शक्ति से आबद्ध होने के कारण वे जन्म – मृत्यु के चक्र में पड़ जाते हैं। हमें यह अमूल्य मानव

 

– जन्म स्वयं को इस घोर – बंधन से मुक्त करने व परम – सुख को प्राप्त कराने वाले श्रीकृष्ण के पाद-पद्मों का पूर्ण – आश्रय ग्रहण करने के लिए ही मिला है।

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